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आवश्यक सञ
श्री पारसमल चण्डालिया
आवश्यकसूत्र में श्रमण एवं श्रमणोपासक के लिए अवश्यकरणीय षड् आवश्यकों का निरूपण हुआ है। इसमें प्रतिक्रमण के विशेष पाठ हैं, जिनका अध्ययन श्रावकों के लिए भी उपादेय है। श्री चण्डालिया जी ने सामायिक आदि षडावश्यकों का प्रस्तुत लेख में सामान्य परिचय दिया है। -सम्पादक
आवश्यक शब्द का अर्थ
आगम बत्तीसी में आवश्यक सूत्र का महत्त्वपूर्ण स्थान है । 'आवश्यक' शब्द का अर्थ होता है- प्रतिदिन नियमित रूप से की जाने वाली क्रिया । जिस प्रकार शरीर निर्वाह हेतु आहार आदि की क्रिया प्रतिदिन की जाती है और यह आवश्यक क्रिया मानी जाती है उसी तरह आध्यात्मिक कल्याण के लिए जिस क्रिया का प्रतिदिन किया जाना आवश्यक है वह क्रिया 'आवश्यक' कही जाती है।
‘आवस्सयं’-‘आवश्यक' शब्द का निर्वचन - गूढार्थ स्पष्टीकरण आचार्य मलधारी हेमचन्द्र जी, आचार्य हरिभद्र जी, आचार्य मलयगिरिजी आदि अनेक आचार्यों ने किया है, किन्तु जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यक भाष्य गाथा ८७७-८७८ में जो स्पष्टीकरण दिया है वह विशेष रूप से चिंतनीय एवं मननीय है। जो अवश्य किया जाय वह आवश्यक है।' इसी बात को अनुयोग द्वार सूत्र में यों कहा है- "समणेण सावएण य अवस्सं कायव्वं हवइ जम्हा |
अंते अहो - निसस्स य तम्हा आवस्सयं नाम ।।"
अर्थात् साधु और श्रावक दोनों ही नित्य प्रति अर्थात् प्रतिदिन क्रमशः दिन और रात्रि के अंत में सामायिक आदि की साधना करते हैं, वह आवश्यक है। प्राकृत भाषा में आधार वाचक आपाश्रय शब्द भी 'आवस्सय' कहलाता है । जो गुणों की आधार भूमि हो, वह आवस्सय- आपाश्रय है । ' आवश्यक आध्यात्मिक समता, नम्रता, आत्म-निरीक्षण आदि सद्गुणों का आधार है, अतः वह आपाश्रय कहलाता है।
आ+वश्य, आवश्यक-जो आत्मा को दुर्गुणों से हटा कर गुणों के अधीन करे, वह आवश्यक है।
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प्राकृत में आवासक भी ‘आवस्सय' बन जाता है। अतः गुणों से शून्य आत्मा को गुणों से वासित करे, वह आवश्यक है । ' गुणों से आत्मा को वासित करने का अर्थ है - गुणों से युक्त करना।
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