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है। वह उन कर्म पुद्गल परमाणुओं को आकृष्ट करने की क्रिया भी है। ये दोनों ही आश्रव के रूप हैं। इनमें प्रथम 'भावाश्रव' है और 'द्रव्याश्रव' उसका कार्य है। आश्रव शुभ रूप भी है और अशुभ रूप भी है। पुण्य का आश्रव शुभ है, जबकि पाप का आश्रव अशुभ होता है। आश्रव के मूलतः पंचविध भेद हैं"- मिथ्यात्व, अव्रत, प्रमाद, कषाय और योग। ये पाँचों भेद वास्तव में आश्रव रूपी आग के उत्पादक एवं उत्तेजक हैं। इसीलिये ये 'हेय' हैं। ०४. संवर
संवर' तत्सम शब्द है। प्रस्तुत शब्द प्राकृत और संस्कृत इन दोनों भाषाओं में प्रयुक्त हुआ है। जैन आगम साहित्य में इस शब्द का प्रचुर प्रयोग दृष्टिगत होता है।" सम् उपसर्ग-पुरस्सर 'वृञ्' वरणे धातु से 'अप्' प्रत्यय प्रयुक्त करने पर ‘संवर' शब्द निष्पन्न हुआ है। संवर वस्तुतः आश्रव निरोध की प्रक्रिया है। आश्रव द्वारों को अवरुद्ध कर देना, आश्रव जनित दोषों का परिवर्जन करना “संवर" है। संवर और आश्रव ये दोनों एक दूसरे के लिये विजातीय हैं। यह सुनिश्चित है कि पुण्य और पाप ये दोनों ही क्रमशः शुभ एवं अशुभ आश्रव हैं। संवर इन दोनों आश्रवों तथा उनके शुभ-अशुभ उपयोगों से आत्मा को हटा कर उसे शुद्धोपयोग रूप धर्म में सुस्थिर कर देता है। वास्तव में संवर आश्रव-निरोध की क्रिया है," पद्धति है और साधन है। संवर की साधना के माध्यम से नये कर्मों का आगमन नहीं होता है और यह आत्मा की जागृति, विकास एवं स्वरूप में स्थिरता के लिये उपादेय तत्त्व है। इसके मुख्य पाँच भेद हैं- सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकषाय और अयोग। ये पाँचों भेद आश्रव के विरोधी हैं और आध्यात्मिक समुत्कर्ष के क्रमिक सोपान हैं। द्रव्य-संवर और भाव-संवर के रूप में संवर दो प्रकार का प्रतिपादित है।" आत्मा के मोह, राग, द्वेष आदि आन्तरिक वैभाविक परिणामों का निरोध करना "भाव संवर" है। जबकि आत्मा के निमित्त से योग द्वारों से प्रविष्ट होने वाले कर्म-पुद्गलों का निरोध करना "द्रव्य संवर" है। निष्कर्ष की भाषा में यही कहा जा सकता है कि संवर जीव का स्वभाव में रमण करने का प्रमुख कारण होता है। अतएव वह स्वानुभूति का राजमार्ग है। . 04. कषाय
___'कसाय' आगमीय शब्द है, जो जैन आगम में एक पारिभाषिक शब्द के रूप में व्यवहृत हुआ है। यह वह शब्द है, जिसका प्रचुर प्रयोग जैन आगम वाङ्मय में बहुविध परिप्रेक्ष्य में परिदृश्यमान है। 'कसाय' प्राकृत भाषा का शब्द है, जिसका
स्वाध्याय शिक्षा
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