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आत्मा एक है, किन्तु पर्यायार्थिक नय की विवक्षा से परिणात्मक होने के कारण इसके तीन भेद भी हैं और वे ये हैं- बहिरात्मा, अन्तरात्मा एवं परमात्मा। इनमें संसारी आत्मा शरीर, वैभव प्रभृति पर द्रव्यों में आत्मबुद्धि रखता है। अतएव वह बहिरात्मा है। जब उसकी यह पर-बुद्धि दूर हो जाती है अर्थात् उसके 'मिथ्यात्व' के मिट जाने पर 'सम्यक्त्व' आ जाता है तब वह अन्तरात्मा बन जाता है। अन्तरात्मा जब सर्वज्ञ बन जाता है, तब वह 'परमात्मा' कहलाता है। स्वरूप लक्षण के अनुसार आत्मा उपयोगमय है।" आत्मा और उपयोग वस्तुतः भिन्न-भिन्न नहीं हैं, अपितु एकाकार हैं। इस विवक्षा से आत्मा एवं उपयोग परस्पर पर्याय हैं। ये दोनों सर्वथा अक्षुण्ण रूप से अभेदात्मक स्थिति को प्राप्त हैं। आत्मा नवविध तत्त्व में एक तत्त्व है।" षड्विध द्रव्य में एक द्रव्य है और दो राशियों में एक राशि है। वास्तव में आत्मा ही एक ऐसा द्रव्य है, जो प्रत्येक द्रव्य का यथार्थतः विज्ञायक है और निर्णायक भी है। 03. आश्रव (आस्रव)
___'आसव' प्राकृत भाषा का रूप है और प्रस्तुत शब्द जैनागम-वाङ्मय में बहुविध परिप्रेक्ष्य में प्रयुक्त भी हुआ है।' 'आसव' शब्द का संस्कृत रूपान्तर दो प्रकार से प्राप्त होता है। प्रथम रूप “आश्रव" है और द्वितीय रूप "आम्रव" है। इन दोनों रूपों का प्रचुर प्रयोग जैन साहित्य में सम्प्राप्त है। आनव शब्द 'आङ्' उपसर्ग पूर्वक 'नु' धातु से 'अण्' प्रत्यय होने पर निष्पन्न हुआ है। जिसका पारिभाषिक अर्थ है- जिसके द्वारा आत्मा में पुण्य-पाप रूप कर्म प्रवेश करते हैं। उसी का नाम 'आम्नव' या 'आश्रव' है। आश्रव वस्तुतः एक ऐसा द्वार है जिसके द्वारा ही आत्मा कार्मिक पुद्गलों को ग्रहण करती है। आश्रव जीव का विभाव में रमण करने का कारण होता है। इसलिये विभाव और स्वभाव को समझ कर स्वभाव में संस्थित होना ही आश्रव से मुक्त होना है। आश्रव के संदर्भ में एक सर्वथा सटीक रूपक है। एक सागर खुला रहता है, उसके कोई बान्ध अथवा तट नहीं बना होता है। एतदर्थ जल-परिपूर्ण सरिताएँ चारों ओर से आ-आ कर उसमें प्रविष्ट हो जाती हैं। वह सागर जल से भर जाता है। सागर चाहे कि मेरे भीतर नदियाँ प्रविष्ट न हों, वे मुझे जल से न भरें, यह कदापि संभव नहीं है। क्योंकि सागर के चारों ओर के छोर खुले हैं। कोई तटबन्ध अथवा बान्ध नहीं बना हुआ है। इसी प्रकार जागतिक आत्मा रूपी समुद्र के चारों ओर कर्म रूपी जल के आने के छोर अथवा द्वार उद्घाटित हों, ऐसी स्थिति में कर्म निश्चित रूपेण आयेंगे। आत्मा की रागात्मक एवं द्वेषात्मक अथवा कषाय-संयुक्त परिणामधारा कर्म-परमाणुओं के आकर्षण का कारण अवश्य बनती .. 128
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