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________________ १. सामायिक- राग-द्वेष के वश न होकर समभाव (माध्यस्थ भाव) में रहना. अर्थात् किसी प्राणी को दुःख नहीं पहुँचाते हुए सभी के साथ आत्म तुल्य व्यवहार करना एवं आत्मा में ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि गुणों की वृद्धि करना ‘सामायिक' है। २. चतुर्विंशतिस्तव-२४ तीर्थंकरों के गुणों का भक्तिपूर्वक कीर्तन करना 'चतुर्विंशतिस्तव' है। इसका उद्देश्य गुणानुराग की वृद्धि है जो कि निर्जरा और आत्मा के विकास का साधन है। ३. वन्दना- मन, वचन और शरीर का वह प्रशस्त व्यापार जिसके द्वारा पूज्यों के प्रति भक्ति बहुमान प्रकट किया जाय, 'वन्दना' कहलाता है। ४. प्रतिक्रमण-प्रमादवश शुभ योग से गिरकर अशुभ योग प्राप्त करने के बाद पुनः शुभ योग प्राप्त करना अथवा अशुभ योग से निवृत्त होकर शुभ योग में प्रवृत्त होना 'प्रतिक्रमण' है। ५. कायोत्सर्ग- धर्मध्यान और शुक्लध्यान के लिए एकाग्र होकर शरीर के ममत्व का त्याग करना 'कायोत्सर्ग' है। ६. प्रत्याख्यान- द्रव्य और भाव से आत्मा के लिए अनिष्टकारी अतएव त्यागने योग्य अन्न, वस्त्रादि तथा अज्ञान, कषायादि का मन, वचन और काया से यथाशक्ति त्याग करना 'प्रत्याख्यान' है। षडावश्यक स्वरूप आत्मा को निर्मल अर्थात् कर्ममल रहित बनाने के लिए प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। इसलिए प्रतिक्रमण को 'आवश्यक' जैसा सार्थक नाम दिया गया है। पाप निवृत्ति रूप आवश्यक के छह अध्ययन हैं। इन छह आवश्यकों का विस्तृत स्वरूप इस प्रकार हैप्रथम आवश्यक-सामायिक ___ छह आवश्यकों में सामायिक आवश्यक को प्रथम स्थान दिया गया है। समभाव की प्राप्ति होना अर्थात् राग-द्वेष रहित माध्यस्थ भाव 'सामायिक' है। ममत्व भाव के कारण आत्मा अनादिकाल से चतुर्गति रूप संसार में परिभ्रमण कर रही है ऐसी आत्मा को समभाव में रमण कराने के लिए सावध योगों से निवृत्ति आवश्यक है, जो कि सामायिक से संभव है। आत्मोत्थान के लिए सामायिक मुख्य प्रयोग है, मोक्ष प्राप्त करने का उपाय है। समस्त धार्मिक क्रियाओं के लिए आधारभूत होने से ही सामायिक को प्रथम स्थान प्रदान किया गया है। सामायिक अर्थात् आत्म-स्वरूप में रमण करना, सम्यग् ज्ञान, दर्शन ___72 - स्वाध्याय शिक्षा 72 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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