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फरमाते हैं कि
"पच्चक्खाणेणं आसवदाराइं णिरुंभइ, पच्चक्खाणेणं इच्छा णिरोहं जणयइ, इच्छाणिरोहं गए यणं जीवे सव्वदव्वेसु विणीयतण्हे सीइभूए विहरइ।"
प्रत्याख्यान करने से आस्रव द्वारों का निरोध होता है, प्रत्याख्यान करने से इच्छा का निरोध होता है, इच्छा का निरोध होने से जीव सभी पदार्थों में तृष्णा रहित बना हुआ परम शांति से विचरता है। आवश्यक, आवश्यक क्यों हैं?
ग्रहण किए हुए व्रतों में प्रमादवश या अनजानपने में अतिचार दोष लगने की संभावना रहती है। जब तक दोषों को दूर नहीं किया जाता तब तक आत्मा शुद्ध नहीं बनती। आवश्यक (प्रतिक्रमण) के द्वारा दोषों की आलोचना की जाती है, आत्मा को अशुभ भावों से हटाकर शुभ भावों की तरफ ले जाया जाता है। प्रतिक्रमण के माध्यम से ही साधक अपनी भटकी हुई आत्मा को स्थिर करता है। भूलों को ध्यान में लाता है और मन, वचन, काया के पश्चात्ताप की अग्नि में आत्मा को निखारता है। आत्म-शुद्धि के लिए प्रतिक्रमण आवश्यक है।
जैसे मार्ग में चलते हुए अनाभोग प्रमाद आदि से पैर में कांटा लग जाता है तो उसे निकालना आवश्यक होता है। जब तक कांटा नहीं निकाला जाता है तब तक ठीक ढंग से चला नहीं जा सकता है। कभी-कभी कांटा नहीं निकलने पर पैरों में विष फैल जाता है और चलने की शक्ति नष्ट हो जाती है वैसे ही सम्यग्ज्ञानादि ग्रहण करने के पश्चात् प्रमाद, अविवेक, आदि से अतिचार रूपी कांटे लग जाते हैं। जब तक उन अतिचारों को दूर नहीं किया जाता है, पापों का पश्चात्ताप रूप प्रतिक्रमण नहीं किया जाता है, तब तक जीव मोक्ष के निकट नहीं हो पाता है। अतिचारों की शुद्धि नहीं होने पर जीव विराधक बन जाता है, यहां तक कि सम्यक्त्व आदि से भी भ्रष्ट हो जाता है, अतः प्रतिक्रमण आवश्यक है।
ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप और वीर्य ये पाँच 'आचार' कहलाते हैं। पंचाचार की शुद्धि के लिए भी प्रतिक्रमण आवश्यक है।
___ कर्मबन्धन से छुटकारा पाने के लिए यह आवश्यक है कि जीव पूर्वकृत कर्मों का क्षय करे और नवीन कर्मों का बंध नहीं करे। प्रतिक्रमण द्वारा पूर्वकृत पापों की निंदा की जाती है, आलोचना की जाती है और मन, वचन, काया से प्रायश्चित्त (पश्चात्ताप) किया जाता है, अतः कर्मों की निर्जरा होती है और भविष्य में कर्म-बन्धन रूकता है। प्रतिक्रमण से-"छू पिछला पाप से नवां न बांधू कोय" यह
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