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________________ उक्ति सिद्ध होती है। अतः प्रतिक्रमण आवश्यक है। शंका- जिसने व्रत धारण नहीं किये हैं, उसके लिए क्या आवश्यक (प्रतिक्रमण) करना आवश्यक है? __ समाधान- आवश्यक में छह आवश्यक हैं- सामायिक, चतुर्विंशतिस्तव, वंदना, प्रतिक्रमण, कायोत्सर्ग और प्रत्याख्यान। इनमें से केवल चौथा आवश्यक व्रतों के अतिचारों की आलोचना का है, शेष का संबंध इनसे नहीं है। कई पाठ सामान्य आलोचना के हैं, कई स्तुति के हैं और कई वन्दना के। कायोत्सर्ग एवं प्रत्याख्यान संबंधी प्रतिक्रमण का अंश भी भूत एवं भविष्य की आत्म-शुद्धि से संबंध रखता है। इस प्रकार व्रतधारी और बिना व्रतधारी सभी के लिए सामान्य रूप से प्रतिक्रमण की आवश्यकता है ही। जिसने व्रत नहीं लिया है उसका भी झुकाव व्रतों की ओर हो, यही सम्यक्त्वधारी से आशा की जाती है। चारित्र मोहनीय का विशिष्ट क्षयोपशम नहीं होने से व्रत न लेने में वह अपनी कमजोरी समझता है और उस शुभ दिन की प्रतीक्षा करता है जब कि वह व्रत धारण कर सकेगा। ऐसे सम्यक्त्वधारी के लिए व्रत एवं अतिचारों का गिनना व्यर्थ कैसे हो सकता है? उसे अपनी शक्ति का ध्यान आता है, व्रतधारियों के प्रति सम्मान भाव आता है एवं व्रतधारण की रुचि होती है। कई अतिचारों के पाठ सामान्य हैं। कई में समकित एवं ज्ञान के अतिचारों का वर्णन है, जिनकी आलोचना व्रतरहित सम्यक्त्व धारियों के लिए भी आवश्यक है। आवश्यक बत्तीसवाँ आगम है उसका स्वाध्याय आत्म कल्याण के लिए है। प्रतिक्रमण व्रतों की आलोचना के सिवाय निम्न कारणों से भी किया जाता है- १. जिन कार्यों को करने का मना है, उन्हें किया हो २. करने योग्य कार्य नहीं किया हो ३. वीतराग के वचनों पर श्रद्धा नहीं रखी हो। ४. सिद्धान्त विपरीत प्ररूपणा की हो। प्रतिक्रमण वैद्य की औषधि के समान है जिसका प्रतिदिन सेवन करने से विद्यमान रोग शांत हो जाते हैं, रोग नहीं होने पर उस औषधि के प्रभाव से वर्ण, रूप, यौवन और लावण्य आदि में वृद्धि होती है और भविष्य में रोग नहीं होते। इसी तरह यदि दोष लगे हों तो प्रतिक्रमण द्वारा उनकी शुद्धि हो जाती है और दोष नहीं लगा हो तो प्रतिक्रमण चारित्र की विशेष शुद्धि करता है। इसलिए प्रतिक्रमण सभी के लिए समान रूप से आवश्यक है। उपसंहार उक्त विवेचन से स्पष्ट है कि आवश्यक सूत्र का जीव शुद्धि के लिए कितना अधिक महत्त्व है। जीवन में आई गंदगियों को दूर कर देने के लिए यह निर्मल 80 - स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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