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मंदाकिनी है। इसमें प्रतिदिन अवगाहन कर अपने पाप को धो डालना प्रत्येक मानव के लिए आवश्यक है।
__आजकल 'आवस्सय-आवश्यक' रटा जाता है, किन्तु उसका मर्म समझा या समझाया नहीं जाता। जिससे 'आवस्सय' साधना भार रूप होती जा रही है। 'आवस्सय' जीवन में ओतप्रोत हो जाने चाहिए। उपयोग सहित आवश्यकों के करने से निर्मल साधक का जीवन सुन्दर रूप से विकसित हो सकता है अतः आवश्यक को कण्ठस्थ करके उसके द्वारा मनोयोग पूर्वक नित्य क्रिया करना अत्युत्तम है। 'आवस्सय' से ही साधक जीवन का जन्म होता है, उससे ही साधना को पोषण मिलता है और उससे ही वह चरम उत्कर्ष पर पहुँचता है।
संदर्भ 1. अवश्यं करणाद् आवश्यकम्।। 2. आपाश्रयो वा इदं गुणानाम्, प्राकृतशैल्या आवस्सयं ।
गुणानां वश्यमात्मानं करोतीति। 4. गुणशून्यमात्मानं गुणैरावासयतीति आवासकम् । 5. गुणैर्वा आवासक-अनुरंजक वस्त्रधूपादिवत्। 6. गुणैर्वा आत्मानं आवासयति-आच्छादयति, इति आवासकम् । – विशेषावश्यक भाष्य ।। 7: आवस्सयं अवस्सकरणिज्ज, धुवनिग्गहो विसोही य। अज्झयण-छक्कवग्गो, नाओ आराहणा मग्गो।।-अनुयोगद्वारसूत्र
-२१ बी, मुणोत कॉलोनी, ब्यावर-30५९०१ (राज.)
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स्वाध्याय शिक्षा
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