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आगम-साहित्य में संगीत कला
समणी संबोध प्रज्ञा आगम वाड्मय में यथाप्रसंग अनेक विद्याओं का समावेश हुआ है। तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का चित्रण भी आगमों में उपलब्ध है। 'संगीतकला' तत्कालीन संस्कृति के एक पक्ष को प्रकट करती है। आगमों में विद्यमान इस कला का किंचित् परिचय समणी संबोधप्रज्ञा जी ने कराया है। -सम्पादक
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भारतीय संस्कृति संसार की श्रेष्ठतम संस्कृति है। अनेक धाराओं का मिश्रण लिए यह संस्कृति अपने आप में अनूठी है। कला भारतीय संस्कृति का महत्त्वपूर्ण अंग है। कला शब्द श्रवण करते ही ७२ कलाओं की बात आती है। जैनसूत्रों में ७२ कलाओं का उल्लेख अनेक स्थानों पर मिलता है। इन कलाओं का वर्गीकरण निम्न रूप में किया जा सकता है। ०१. लेखन, पठन-पाठन और गणित।' ०२.काव्य जिसमें पोरकत्व, आर्या, प्रहेलिका, मागधिका, गाथा, गीत और श्लोक . रचना का अन्तर्भाव होता है। ०३.रूपकला। ०४.संगीतकला जिसमें नृत्य, गीत, वाद्य, स्वरगत, पुष्करगत और समताल का
अन्तर्भाव होता है। ०५.मिश्रितद्रव्यों के पृथक्करण की कला। ०६.द्यूत कला। ०७.स्वास्थ्य, विलेपन और भोजनकला। ०८.विविध प्रकार के लक्षण, चिहन आदि की कला। ०६.शकुन कला। १०.ज्योतिषकला। ११. रसायनकला। १२. वास्तुकला। १३. युद्धकला।
कामशास्त्र में ६४ कलाओं का उल्लेख मिलता है। इन कलाओं में संगीतकला उच्चतम स्थान रखती है। शोपेनहावर शिल्पकला, वास्तुकला आदि से काव्यकला को उच्च मानते हैं, पर संगीत को वे कलाओं का सरताज मानते हैं। उनके अनुसार किसी वस्तु का बोध कराने के लिए अन्य कलाएँ एक-एक क्षण को व्यक्त
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