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________________ करती हैं, उसे संपूर्ण रूप से व्यक्त नहीं कर पातीं। संगीतकला अन्य कलाओं की तरह मानसिक बोध कराने की अनुकृति नहीं करती, बल्कि वह स्वयं की इच्छा की अनुकृति है और यह बोध कराने की क्रिया इसी की छाया है। संगीत का महत्त्व सर्वविदित है। संगीत तत्त्वमीमांसा और दर्शन से उत्पन्न होता है, इसका स्रोत अवचेतन मन है। संगीत में गीत, नृत्य एवं वाद्य तीनों ही सम्मिलित हैं। संगीतरत्नाकर में कहा गया है- गीत, वाद्यं तथा नृत्यं त्रयं संगीतमुच्यते। गीत, वाद्य और नृत्य- ये तीनों मिलकर संगीत कहलाते हैं। वास्तव में ये स्वंतत्र हैं, किन्तु स्वतंत्र होते हुए भी वादन गान के अधीन एवं नर्तन वादन के अधीन है। प्राचीन काल में इनका प्रयोग अधिकतर एक साथ हुआ करता था। इन तीनों में गान को ही प्रधानता दी गई है नृतं वाद्यानुगं प्रोक्तं वाद्यं गीतानुवर्ति च। अतो गीतं प्रधानत्वादत्रादावभिधीयते।। संगीत की प्रधानता हर काल, हर उत्सव में है। प्राचीनकाल में उत्सवों और त्यौहारों के अवसर पर प्रायः स्त्री और पुरुष नाच-गाकर मनोरंजन किया करते थे। वाराणसी में मदन-महोत्सव खूब ठाट से मनाया जाता था। उत्तराध्ययन टीका में उल्लेख मिलता है कि ऐसे अवसर पर चित्त और संभूत नामक दो मातंग दारक तिसरय, वेणु और वीणा बजाते हुए अपनी टोली के साथ गंधर्व गाते हुए नगर में से गुजरे, जिससे सब लोग मुग्ध हो गए। कौमुदी-महोत्सव पर भी लोग गाते-बजाते और नृत्य करते थे। इन्द्र महोत्सव भी खूब ठाट-बाट से मनाया जाता था। इस अवसर पर नर्तिकाओं के सुन्दर नृत्य होते, सुकवियों द्वारा स्वरचित काव्यों का पाठ किया जाता और सभी लोग नृत्य और गान में मस्त हो जाते।' आवश्यकचूर्णि में राजा उदयन की घटना उल्लिखित है। वह अपने संगीत से हाथी को वश में कर लेता था। राजकुमारी वासवदत्ता को संगीत की शिक्षा देते-देते प्रेम में पड़ उसे भगा ले आया। सिन्धु सौवीर के राजा उद्रायण भी अच्छे संगीतज्ञ थे। वे वीणा बजाते एवं रानी नृत्य करती थी। जैन आगमों के अंग चौदह पूर्वो में एक पूर्व स्वरप्राभृत था, जिसमें विस्तार से स्वर एवं अलंकारों का वर्णन किया गया था। आज यह ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, फिर भी इसका अध्ययन भरत और विशाखिल आदि ग्रन्थों से किया जा सकता है। जो स्वाध्याय शिक्षा - 83 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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