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________________ प्राप्त नहीं होता०१. जो बार-बार क्रोध करता है। ०२. जो क्रोध को टिका कर रखता है। ०३. जो मैत्री करने वाले के साथ अमैत्रीपूर्ण व्यवहार करता है। ०४. जो ज्ञान का मद करता है। ०५. किसी की स्खलना होने पर उसका तिरस्कार करता है। ०६. मित्रों पर कुपित होता है। ०७. प्रियता रखने वाले मित्र की भी एकांत में बुराई करता है। ०८. असंबद्धभाषी है। ०६. द्रोही है। १०. अभिमानी है। ११. लुब्ध है। १२. जितेन्द्रिय नहीं है। १३. संविभाग नहीं करता है। १४. विश्वसनीय अथवा प्रीतिकर नहीं है। स्वाध्याय का महत्त्व जैन साधना में स्वाध्याय को बहुत महत्त्व दिया गया है। स्वाध्याय शिक्षा का अभिन्न अंग है। भगवान महावीर ने कहा कि स्वाध्याय महान् तप है। बारह प्रकार के आंतरिक व बाह्य तपों में स्वाध्याय के समान तप न तो है, न हुआ है और न होगा। उत्तराध्ययन सूत्र में भगवान से पूछा गया- "हे भगवन्! स्वाध्याय करने से जीव किस बात का लाभ प्राप्त करता है?" भगवान ने उत्तर दिया "सज्झाएणं नाणावरणिज्ज कम्मं खवेई। ___ अर्थात् स्वाध्याय से जीव ज्ञानावरणीय (ज्ञान को रोकने वाले) कर्मों का नाश करता है। भगवती सूत्र में प्रभु महावीर ने बतलाया कि सही प्रकार से स्वाध्याय करने से मनुष्य अपने जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य अर्थात् परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर सकता है। वह कथन निम्न है "सवणे नाणे य विन्नाणे, पच्चखाणे य संजमे। अणण्हये तवे चेव, वोदाणे अकिरिया सिद्धी।।" अर्थात् धर्म-श्रवण (स्वाध्याय) से निम्नांकित लाभ प्राप्त होते हैं 38 स्वाध्याय शिक्षा . Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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