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०१. ज्ञान
०२. विशिष्ट तत्त्वबोध
०३. प्रत्याख्यान (सांसारिक पदार्थों से विरक्ति) ०४. संयम
०५. अनास्रव (नवीन कर्मों का निरोध)
०६. तप
०७. पूर्वबद्ध कर्मों का नाश सर्वथा कर्मरहित स्थिति व
०८.
०६. सिद्धि ( मुक्त स्थिति)
इससे ज्ञात होता है कि जीवन की साधना में स्वाध्याय का स्थान सर्वोपरि
है।
स्वाध्याय के अंग
जैन शास्त्रों में स्वाध्याय के बारे में विशद विवेचन मिलता है। प्राचीन काल में जब पुस्तकों का प्रचलन नहीं था तब भी स्वाध्याय किया जाता था। उस समय ज्ञान को कंठस्थ रखने का प्रचलन था। शिष्य गुरुजनों से शास्त्र श्रवण कर उन्हें अपनी स्मृति में संजोकर रखते थे । वेदों को "श्रुति” और आगम को " श्रुत" कहा गया, यह इसी तथ्य का सूचक है। जैन आचार्यों ने स्वाध्याय के निम्न पांच अंगों का विस्तृत विवेचन किया है
1. वाचना- स्वाध्याय का पहला प्रकार वाचना है। गुरुजनों से ज्ञान ग्रहण करना, उनके प्रवचन सुनना 'वाचना' कहलाता है। बड़े-बड़ें ज्ञानियों ने जो ज्ञान पुस्तकों में लिपिबद्ध किया है, उसे पढ़ना भी वाचना कहलाता है। पढ़ना और किसी से सवचन सुनना यह दोनों वाचना के अन्तर्गत आते हैं।
2. पृच्छना - पढ़े या सुने हुए ज्ञान के बारे में कोई शंका हो या उसका अर्थ स्पष्ट नहीं हो तो उसके बारे में जिज्ञासावृत्ति से प्रश्न पूछना ताकि विषय स्पष्ट हो जाय 'पृच्छना' कहलाता है। इससे ज्ञान सम्यक् बनता है। जैन पद्धति में प्रश्नोत्तर को पृच्छना का अंग माना गया है।
3. परावर्तना- पूर्व पठित ज्ञान को बार-बार स्मरण करना या उसका पुनः-पुनः पारायण करना ताकि पाठ भूलें नहीं “परावर्तना" कहलाता है। बार-बार याद करने से ज्ञान स्मृति में स्थायी रूप से स्थिर हो जाता है।
4. अनुप्रेक्षा - ज्ञान के बारे में निरन्तर चिंतन-मनन करना तथा पठित ज्ञान को
स्वाध्याय शिक्षा
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