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विभिन्न दृष्टिकोणों से समझना 'अनुप्रेक्षा' कहलाता है। इससे ज्ञान में व्यापकता आती है। अनुप्रेक्षा द्वारा स्वाध्यायी ज्ञान में गंभीरता प्राप्त करता है। 5. धर्मकथा-जब स्वाध्यायी ज्ञान को ग्रहण कर उसे निश्शंक कर लेता है तब उससे यह अपेक्षा की जाती है कि वह अपने निर्मल ज्ञान के स्रोत से अन्य लोगों को ज्ञान देकर उनके ज्ञान की अभिवृद्धि करे। साधक वार्ता, चर्चा, प्रवचन, अध्यापन, प्रश्नोत्तर इत्यादि द्वारा अपने ज्ञान को भी सुदृढ़ करता है एवं समाज को भी लाभान्वित करता है। जीवन का सर्वांगीण विकास
__उपर्युक्त विवेचन से यह कदापि नहीं समझना चाहिए कि भारतीय शिक्षा ने जीवन के भौतिक अंगों की उपेक्षा कर दी है। हमारे यहाँ शास्त्रों में जीवन का समग्र अंग लिया गया है अर्थात् मनुष्य के शरीर, मन, बुद्धि व आत्मा की पूर्णता की उद्भावना है। चतुर्विध पुरुषार्थ द्वारा मनुष्य जीवन का सम्पूर्ण विकास करना शिक्षा का उद्देश्य है। चतुर्विध पुरुषार्थ में ही मनुष्य जीवन के सम्पूर्ण विकास की उद्भावना है। इसको स्पष्ट करने के लिए हम एक नदी का उदाहरण लें। अगर नदी के दोनों किनारे, दोनों तटबंध मजबूत होते हैं तो उस नदी का पानी पीने के, सिंचाई के, उद्योग-धंधों आदि के काम आता है, उससे जीवों का कल्याण होता है, लेकिन जब उसके किनारे कमजोर पड़ जाते हैं तो नदी बाढ़ का रूप धारण कर लेती है और तब वही पानी अनेक गांवों को जलमग्न कर देता है, अनेक मनुष्य और पशु उसमें बह जाते हैं, भयंकर त्राही-त्राही मच जाती है। इसी प्रकार मनुष्य का जीवन धर्म और मोक्ष के दो किनारों की तरह है। इन दो तटों की मर्यादा में अर्थ और काम का सेवन किया जाए तो मनुष्य का जीवन स्वयं के लिए एवं अन्यों के लिए भी उपयोगी और कल्याणकारी सिद्ध होता है। हमारे यहां पर जगत् और जीवन की उपेक्षा नहीं की गई, लेकिन संयममय, मर्यादानुकूल जीवन के व्यवहार पर जोर दिया गया। हमारे यहां पर पारिवारिक जीवन में इसी धर्म भावना को विकसित करने को कहा गया। शास्त्रों में पत्नी को "धर्मपत्नी" कहा गया जो धर्म भावना को बढ़ाने वाली होती है। वह वासना की मूर्ति नहीं है। आगम में पत्नी के बारे में बड़ा सुन्दर वर्णन आता है
“भारिया धम्मसहाइया, धम्मविइज्जिया।
धम्माणुरागरत्ता, समसुहदुक्खसहाइया।।''
अर्थात् पत्नी धर्म में सहायता करने वाली, साथ देने वाली, अनुरागयुक्त तथा सुख-दुःख को समान रूप में बंटाने वाली होती है।
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स्वाध्याय शिक्षा
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