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फैल रहे हैं जिससे मानव जाति के विनाश का खतरा उत्पन्न हो गया है। इसका कारण इस व्रत का पालन न करना भी है। कामोत्तेजक तथा अश्लील चित्र बनाना व देखना भी इस व्रत के दोष हैं। इससे आज विदेशों में एवं देश में भी अविवाहित लड़कियों के गर्भ रहने, गर्भपात कराने तथा तलाक आदि की घटनाओं में वृद्धि हो रही है। ब्यूटी पार्लर, प्रसाधन सामग्री आदि से शारीरिक अस्वस्थता बढ़ती जा रही है। इन भयंकर प्रदूषणों से बचाव भी इस व्रत का पालन करने से ही संभव है। 5. परिग्रह परिमाण व्रत
गृहस्थ को भूमि, भवन, खेत, वस्तु, धन-धान्य, गाय, भैंस आदि की आवश्यकता पड़ती है। अतः इन्हें अपने परिवार की आवश्यकता के अनुसार रखना, अधिक धन उपार्जन की दृष्टि से न रखना, इस व्रत के अन्तर्गत आता है। इस व्रत में परिग्रह या संग्रह को बुरा बताया गया है, उत्पादन को बुरा नहीं कहा है। आनन्द, कामदेव आदि आदर्श श्रावकों के हजारों गायें थीं। उन्होंने उनका परिमाण किया है, बेचा नहीं है। परिमाण की गई गायों के बछड़े-बछड़ी होते, ये परिमाण में अधिक हो जाते, वे दूसरों को दान दे दिये, जिससे वे उनका पालन पोषण कर आजीविका चलाते। कोई भोजन करना तो उपादेय माने और अन्न उत्पादन को हेय (बुरा) माने, यह घोर विसंगति है। अतः उत्पादन सर्व हितकारी प्रवृत्ति से करना अपनी सुख-सुविधा के लिये उसका संग्रह न करना ही इस व्रत का मुख्य उद्देश्य है। इस व्रत के पालन से उदारता, सेवा, परोपकार की श्रेष्ठवृत्ति का विकास होता है। सेठ व श्रेष्ठ कहा ही उसे है- जो अपने धन का उपयोग दूसरों की सेवा में करे। इस व्रत का पालन किया जाय तो विश्व की गरीबी दूर हो जाय। आर्थिक शोषण का अन्त हो जाय
और जीवन के लिये आवश्यक अन्न, वस्त्र, मकान आदि की कमी न रहे। आज जो आर्थिक जगत में होड़ लगी है- संघर्ष हो रहा है, उसका कारण परिग्रह ही है। इस आर्थिक बुराई या प्रदूषण से बचने का उपाय है- परिग्रह परिमाण व्रत। इस प्रकार व्रत के पालन से पर्यावरण का स्वयमेव शुद्धीकरण हो जाता है। 6. दिशा परिमाण व्रत
धन कमाने तथा विषय-सुख भोगने के लिये मनुष्य देश-देशान्तरों का भ्रमण करता है। यह भ्रमण वित्त, भोग-परिग्रह, लोक-एषणा व भोग-वृद्धि का हेतु होता है। ऐसे भ्रमण को जैन धर्म में मानव जीवन के लक्ष्य शांति, मुक्ति, स्वाधीनता तथा परमानन्द प्राप्ति में बाधक माना गया है और इससे यथासंभव बचने के लिये इसकी मर्यादा करने का विधान किया गया है। वर्तमान में लोग धन कमाने,
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