SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 25
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ क्योंकि ग्रन्थि का निर्माण होता है राग भाव से, आसक्ति से, मायाचार या मुखौटों की जिन्दगी से। इस प्रकार आचारांग एक मनोवैज्ञानिक सत्य को प्रस्तुत करता है। आचारांग के अनुसार बन्धन और मुक्ति के तत्त्व बाहरी नहीं, आन्तरिक हैं। वह स्पष्ट रूप से कहता है कि -बंधप्पमोक्खो तुज्झ अज्झत्येव 1.5.2। बन्धन और मोक्ष हमारे अध्यवसायों किंवा मनोवृत्तियों पर निर्भर हैं। मानसिक बन्धन ही वास्तविक बन्धन है। गांठें जिन्होंने हमें बांध रखा है, वे हमारे मन की गांठें हैं। वह स्पष्ट उद्घोषणा करता है कि-कामेसु गिद्धा निचयं करेंति-1.3.21 कामभोगों के प्रति आसक्ति से प्रत्युत्पन्न हिंसा व्यक्ति की और संसार की सारी पीड़ाओं का मूल स्रोत है। यही जीवन में नरक की सृष्टि करती है, जीवन को नारकीय बनाती है। एस खलु गंथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस खलु निरए-1.1.21 आचारांग के अनुसार विषय भोग के प्रति जो आतुरता है, वही समस्त पीड़ाओं की जननी है। (आतुरा परिताउँति-1.1.2) यहां हमें स्पष्ट रूप से विश्व की समस्त पीड़ाओं का एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण प्राप्त होता है। सूत्रकार स्पष्ट रूप से कहता है कि- आसंच छदं च विगिंच धीरे। तुम चेव तं सल्लमाटु-1.2.4। हे धीर पुरुष! विषय-भोगों की आकांक्षा और तत्संबंधी संकल्प-विकल्पों का परित्याग करो। तुम स्वयं इस कांटे को अपने अन्तःकरण में रखकर दुःखी हो रहे हो। इस प्रकार आचारांग बंधन, पीड़ा या दुःख के प्रति एक आत्मनिष्ठ एवं मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत करता है। वह कहता है- जे आसवा ते परिस्सवा जे परिस्सवा, ते आसवा-1.4.2 अर्थात बाहर में जो बन्धन के निमित्त हैं, वे भी कभी मुक्ति के निमित्त बन जाते हैं। इसका आशय यही है कि बन्धन और मुक्ति का सारा खेल साधक के अंतरंग भावों पर आधारित है। यदि इसी प्रश्न पर हम आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से विचार करें तो यह पाते हैं कि आधुनिक मनोविकृतियों के कारणों का विश्लेषण करते हुए स्पष्ट रूप से यह बताया गया है कि उन कुण्ठाओं के कारण मनोग्रन्थियों की रचना होती है, जो अन्ततोगत्वा व्यक्ति में मनोविकृतियों को उत्पन्न करती हैं। मनोवृत्तियों की सापेक्षता ___ आचारांग सूत्र में क्रोध, मान, माया, लोभ, राग(प्रेम), द्वेष, मोह आदि की परस्पर की सापेक्षता को सूचित करते हुए यह बताया गया है कि जो इनमें से किसी एक को भी सम्यक् प्रकार से जान लेता है वह अन्य सभी को जान लेता है और जो एक पर पूर्ण विजय प्राप्त कर लेता है, वह अन्य सभी पर विजय प्राप्त कर लेता है। (जे एगं जाणइ से सवं जाणइ, जे सव्वं जाणइ से एगं जाणइ,जे एगं नामे से बहुं नामे जे 12 * स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy