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________________ सम्यग् ज्ञान- जीव अर्थात् आत्मा, अजीव अर्थात् जड़ पुद्गल, बन्ध अर्थात् आत्मा का पुद्गलों, कमों एवं शरीर आदि से संबंध होना तथा मोक्ष अर्थात् आत्मा का कों एवं शरीर आदि के बन्धन से सर्वथा छूट जाना, ये मुख्य चार तत्त्व तथा बन्ध के कारण को आम्नव, बन्ध को रोकने के उपाय को संवर और बंधन के आंशिक तोड़ने को निर्जरा, इस तरह सात तत्त्व एवं आस्रव के शुभ भेद को पुण्य तथा अशुभ भेद को पाप इस प्रकार नव तत्त्वों के स्वरूप को विस्तार से अथवा संक्षेप से जानने को सम्यग् ज्ञान कहा जाता है। ज्ञान का स्वरूप, ज्ञान के भेद-प्रभेदों का पूर्ण विवरण विस्तार से नन्दी सूत्र में तथा तत्त्वार्थ सूत्र के प्रथम अध्याय में उपलब्ध है। ज्ञान-प्राप्ति का प्रमुख उपाय, विनय, विनीत शिष्य के लक्षण, गुण, अविनय से हानियां आदि उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन १ में हैं। अज्ञान सारे दुःखों का मूल, संसार परिभ्रमण का कारण आदि उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ६ में है। संसारस्थ जीवों में पाने वाले ज्ञान, अज्ञान आदि का वर्णन पन्नवणा एवं भगवती सूत्र में विस्तार से किया गया है। सम्यग् दर्शन-उपर्युक्त जीवाजीव आदि तत्त्वों पर दृढ़ विश्वास अर्थात् आत्मपरक विश्वास का होना। आत्मा और शरीर का भेदविज्ञान आत्मा के स्तर पर होना तथा इन तत्त्वों का अनुभूति परक ज्ञान जिन महापुरुषों को हो गया तथा जिन्होंने रागद्वेष रूप बन्धनों को तोड़ कर वीतरागता को प्राप्त कर लिया ऐसे जिनेश्वरों के प्रति पूर्ण विश्वास होने को सम्यग् दर्शन कहा गया है। सम्यग् दर्शन का स्वरूप, भेद, लक्षण, प्राप्ति के उपाय आदि तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन २ में तथा विविध प्रमाण, नय, निक्षेप आदि से सम्यग् दर्शन की चर्चा राजप्रश्नीय सूत्र में है। सम्यग् दर्शन की प्राप्ति में रुचि, प्रभावना आदि का वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २८ में है। सम्यग् दर्शन की प्राप्ति की प्रक्रिया, भेद, प्रभेद आदि कर्मग्रन्थ भाग २ तथा तत्त्वार्थ सूत्र अध्ययन २ में उपलब्ध है। सम्यग् दर्शन की महिमा एवं लाभ आचारांग में वर्णित है। सम्यग दर्शन का दृढ़ता से पालन करने वाले श्रावकों का वर्णन उपासकदशांग सूत्र में वर्णित है। सम्यक्त्व पराक्रम (उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६) में सम्यग् दर्शन, वीतरागता आदि का विस्तार से वर्णन उपलब्ध है। सम्यक चारित्र- सम्यग् ज्ञान एवं दर्शन होने के पश्चात् अठारह पापों का त्याग करना तथा पंच महाव्रतों को धारण करना, पाँच समिति तीन गुप्ति का पालन करते हुए विषय, कषाय, काम, क्रोध, लोभ, मोह, राग, द्वेष आदि का नाश करने में सतत स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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