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________________ नहीं होता। ___ राजप्रश्नीय सूत्र में राजा प्रदेशी के कथानक के माध्यम से समझाया गया कि राजा प्रदेशी ने सुना था कि आत्मा और शरीर भिन्न भिन्न द्रव्य हैं, पर चूंकि आत्मा अत्यन्त सूक्ष्म होने के कारण न तो दिखाई देता है न अनुभव में आता है, न मशीनों से जाना या परखा जा सकता है। उसने आत्मा को देखने, जानने एवं मानने के लिये अनेक मनुष्यों को विविध प्रकार से मारकर, काटकर हत्याएँ भी की, पर आत्मा को देखने व जानने में सफल नहीं हो सका। एक बार उसने 'केशीश्रमण' नाम के महामुनि के दर्शन किये और विविध प्रकार के प्रश्न, तर्क, वितर्क आदि आत्मा को जानने और मानने के लिये किये। सभी प्रश्नों के यथोचित उत्तरों के माध्यम से उसे समझ में आ गया कि मैं स्वयं आत्मा हूँ और शरीर, धन, कुटुम्ब आदि सब प्रत्यक्ष जड़ हैं तो उसका दृढ़ विश्वास हो गया कि मैं स्वयं अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख एवं अनन्त शक्ति का स्वामी हूँ। इस दृढ़ निश्चय से उसकी मानसिकता बदल गई और शरीर, कुटुम्ब, धनादि से तथा राज्य से आसक्ति स्वतः कम पड़ गई। यहां तक कि प्राणप्यारी पत्नी (महारानी) तक से ममत्व एवं राग कम हो गया और ज्यों ज्यों समभाव में रहने लगा त्यों त्यों अत्यन्त शान्ति की अनुभूति होने लगी। उसने श्रावक के बारह व्रत स्वीकार किये तथा दो दो दिन के उपवास अर्थात् बेले-बेले की तपस्या करने लगा। राज्य में रहते हुए भी राजा के त्याग एवं वैराग्य से रानी के भोगों के स्वार्थ में कमी पड़ने के कारण उसका राजा के प्रति राग (मोह) द्वेष में बदल गया और षड्यन्त्र करके राजा को विष तक दे दिया। परन्तु राजा का त्याग, वैराग्य सच्चा था और सम्यग्दर्शन एवं सम्यग्ज्ञान पूर्वक था, इसलिये उसने मरते समय तक रानी पर किंचित् मात्र भी द्वेष नहीं करते हुए पूर्ण समाधि पूर्वक मरण को प्राप्त किया। भवान्तर में वह पूर्ण वीतरागता को प्राप्त कर लेगा अर्थात् आत्मा से परमात्मा बन जायेगा। ऐसी वीतरागता की साधना के लिये जैन आगमों में चार उपाय बताये गये णाणं च दसणं चेव, चरित्तं च तवो तहा। एस मग्गोत्ति पण्णत्तो, जिणेहि वरदंसीहिं।। -उत्त.अ.28.गा.2 अर्थात् ज्ञान,दर्शन, चारित्र और तप- ये चारों मिलकर मोक्ष अर्थात् वीतरागता के मार्ग हैं, ऐसा जिनेश्वरों अर्थात् वीतरागियों ने कहा है। इन चारों का संक्षिप्त अर्थ निम्न प्रकार है स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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