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________________ प्रयत्नशील रहने को सम्यक् चारित्र कहा जाता है। श्रमण आचार का पूरा वर्णन दशवैकालिक, आचारांग आदि में चारित्र की दृष्टि से तथा श्रमणों व निर्ग्रन्थों के भेद, प्रभेद आदि भगवती शतक २५ में है । पाँच संवर एवं पाँच आस्रव द्वारों का विस्तृत वर्णन प्रश्न व्याकरण सूत्र में है । सम्यक् चारित्र के ग्रहण का एवं हिंसादि पापों से निवृत्ति का पूर्ण उपदेश आचारांग सूत्र में है। चारित्र के भेद, प्रभेद आदि भगवती सूत्र शतक २५ में हैं। पांच समिति, तीन गुप्ति का पूरा वर्णन उत्तराध्ययन अध्ययन २४ में है । साधु-समाचारी का पूर्ण वर्णन उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २६ में तथा चारित्र के भेद, प्रभेद आदि भगवती सूत्र शतक २५ उद्देशक ६,७ में किया गया है। सम्यक् तप- पुराने संचित कर्मों का नाश करने हेतु अशनादि का त्याग तथा स्वाध्याय, ध्यान, व्युत्सर्ग आदि करना सम्यक् तप कहलाता है। तप का स्वरूप व भेदों का वर्णन उत्तराध्ययन अध्ययन ३०, रत्नावली, कनकावली आदि का वर्णन अन्तगडदशा सूत्र, तपस्वी साधकों का वर्णन आचारांग, उववाई, अणुत्तरोववाई, भगवती सूत्र आदि में विशेष रूप से उपलब्ध है। सम्यग् ज्ञान, दर्शन, चारित्र एवं तप ये चारों साधनाएँ वीतरागता की प्राप्ति के लिए परम आवश्यक हैं। वीतरागता वास्तव में एक वैज्ञानिक तथ्य है। यह एक सर्वमान्य सत्य है कि प्रत्येक आत्मा सुख चाहता है और वह जीवन पर्यन्त जितने भी कार्य करता है सुखप्राप्ति के लिये ही करता है । परन्तु अनन्त काल तक अनन्त जन्मों में सुख का प्रयास करने पर भी वह सम्पूर्ण सुखी बन नहीं पाता। इसका कारण यह है कि आत्मा पुद्गल से मिलने वाले सुख को ही सच्चा सुख मान लेता है अर्थात् धन, कुटुम्ब,शरीर, अहम् आदि के सुख को ही सच्चा सुख मान लेता है जो कि वास्तव में सुख न होकर सुखाभास मात्र है और इस सुख के अन्दर छिपी हुई अशान्ति एवं तनाव रूप दुःख के रहस्य को न समझ सकने के कारण यह क्षणिक सुख अन्त में पुनः दुःख रूप बन जाता है। जन्म-मरण, संयोग-वियोग, लाभ-हानि एवं मान-अपमान में से प्रायः जन्म, संयोग, लाभ एवं मान में सुख माना जाता है और इनके विपरीत मरण, वियोग, हानि एवं अपमान में दुःख माना जाता है । पर गहराई से देखने पर पता चलता है कि मरण के दुःख का मूल जन्म, वियोग के दुःख का मूल संयोग, हानि के दुःख का मूल लाभ एवं अपमान के दुःख का मूल सम्मान में छिपा हुआ होता है। जन्म, संयोग, लाभ स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only 5 www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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