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एवं सम्मान ये चार अनुकूल लगते हैं और अनुकूलता में व्यक्ति सुख मानता है व राग करता है और मरण, वियोग, हानि और अपमान को प्रतिकूलता मानता है और दुःख अनुभव करता है। इनसे संबंधित वस्तु, व्यक्ति एवं परिस्थिति पर द्वेष करता है। गहराई से चिन्तन करने पर पता चलता है कि प्रतिकूलता के दुःख का मूल अनुकूलता का सुख है। प्रतिकूलता के निमित्त वस्तु, व्यक्ति या परिस्थिति पर द्वेष की जड़ अनुकूलता के राग में छिपी होती है। राग चूंकि अनुकूलता में होता है इसलिये इसकी बुराई न समझ में आती है न महसूस होती है। इन राग और द्वेष दोनों का मूल ममत्व होता है।
संसार में सारे दुःखों का मूल ही ममत्व होता है । जीवन को शरीर, धन, कुटुम्ब, अहं आदि में सुख दिखाई देता है, इस कारण वह इनसे ममत्व करता है । वास्तव में तो इनसे सुख मिलता ही नहीं, पर फिर भी अज्ञान एवं संस्कार के कारण जीव को सुख लगता है। जैसे कोई मिठाई पहले तो चाव से खाता है और खाकर प्रसन्न होता है, पर खाते-खाते ही धीरे-धीरे सुख समाप्त हो जाता है। खाने से पहले जितना और जैसा राग होता है वह धीरे-धीरे कम पड़ जाता है और फिर राग के स्थान पर द्वेष बढ़ने लग जाता है। बढ़ते-बढ़ते वह द्वेष भी इतना बढ़ जाता है कि वह उस मिठाई को देखना तक नहीं चाहता। ठीक इसी प्रकार प्रायः सभी भौतिक सुखों की स्थिति हुआ करती है।
राग एवं द्वेष ये दोनों जहर के समान हैं, पर राग मीठा जहर है और द्वेष खारे जहर के समान है। राग में दुःख भी सुख रूप लगता है। जैसे एक लड़की अपने दस किलो वजन के भाई को खुशी खुशी उठा कर फिरती है पर उसको अगर पाँच किलो वजन के पत्थर को उठाने का कहें तो वह उसे भार लगेगा।
इसी प्रकार एक सेठ की दुकान पर एक रोज सुबह से ग्राहकों की भीड़ लग गई। दुकान पर सेठ के साथ मुनीम भी कार्य कर रहा था । ग्राहकी दिन भर ऐसी रही कि सेठ और मुनीम दोनों का खाना आया हुआ पड़ा ही रह गया । ग्राहकी जोरदार होने से सेठ को न भूख महसूस हुई, न थकान, न टेंशन। पर मुनीम को तो भूख, थकान और टेंशन जबरदस्त हो गया। स्पष्ट है कि सेठजी को राग के कारण भूख, थकान एवं टेंशन रूप प्रत्यक्ष दुःख भी महसूस नहीं हुआ।
इसी प्रकार आभूषणों का भार भी प्रत्यक्ष भार रूप दुःख होने पर भी वह भार बुरा महसूस नहीं होता।
जैन आगमों में रागादि पाप को किंपाक फल की उपमा से उपमित किया " जहा किंपाकफलाणं परिणामो न सुन्दरो ।
स्वाध्याय शिक्षा
गया है
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