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________________ एवं भुत्ताण भोगाणं, परिणामो न सुन्दरो।।" जिस प्रकार किंपाक फल दिखने में सुन्दर होता है, किन्तु उसका परिणाम सुन्दर नहीं है इसी प्रकार भोगे गए भोगों का परिणाम सुन्दर नहीं होता, अनुभव काल में भले ही वे सुन्दर लगते हों। इस राग को जीतना या नष्ट करना ही वीतरागता है। संक्षेप में कहा जाय तो लगभग सभी जैन आगमों में किसी न किसी रूप में वीतरागता की ही बात कही गई है। चाहे वह जीव, अजीव आदि नव तत्त्वों के विस्तार के रूप में हो, जैसे उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३६ एवं ठाणांग सूत्र ठाणा ६, पन्नवणा सूत्र पद १,२,३,५,६ आदि में, तत्त्वार्थ सूत्र अध्याय ५, ६ आदि में है। पाँच आम्नव व पांच संवर तत्त्व का विस्तार प्रश्नव्याकरण सूत्र में है। जीव अजीव का वर्णन जीवाजीवाभिगम सूत्र आदि में है। कर्म-सिद्धान्त के रूप में पूरा कर्मग्रन्थ भाग १ से ६, जिनमें कर्मों का स्वरूप, भेद, प्रभेद, कर्म बन्ध के कारण, बन्ध की स्थिति, उदय, निर्जरा आदि तथा कर्मों से मुक्त होने के उपाय के रूप में गुणस्थानों का पूर्ण स्वरूप, भेद तथा आत्मा कैसे-कैसे रागद्वेष को क्रमशः कम करते-करते पूर्ण वीतरागता को प्राप्त करके मुक्त तक हो सकता है, का वर्णन उपलब्ध है। वीतरागता की साधना आंशिक रूप में करने वाले श्रावकों का वर्णन उपासकदशांग सूत्र में, भगवती सूत्र आदि में है। वीतरागता की पूर्ण साधना करने वाले श्रमण-साधकों का वर्णन भगवती सूत्र, अन्तकृतदशांग सूत्र, अनुत्तरौपपातिक सूत्र आदि में उपलब्ध है। रागद्वेष रूप अधर्म करने एवं दुःखद फल भोगने वालों का वर्णन दुःख विपाक सूत्र में तथा रागद्वेष को आंशिक क्षय करने रूप धर्म करने वालों व उसका सुखद फल भोगने वालों का वर्णन सुख विपाक सूत्र में है। जैन दर्शन एवं सभी जैन आगमों का सूक्ष्म अवलोकन करने से यह स्पष्ट जाना जा सकता है कि वीतरागता इन आगमों का प्राण है। हिंसा, झूठ, चोरी आदि तथा क्रोध, मान, माया, लोभ आदि सबका समावेश रागद्वेष में हो जाता है। शास्त्रकारों ने इन दोनों को भाव शत्रु माना है तथा इनके जीतने वालों को वीतराग अथवा अरिहन्त कहा है। जैन धर्म के सभी फिरकों ने नमस्कार सूत्र को निर्विवाद रूप से स्वीकार किया है। नमस्कार सूत्र का प्रथम पद भी इन्हीं वीतराग अरिहन्तों के लिए अर्पित है। इसी प्रकार उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन ३२ गाथा ७ में "रागो य दोसो य बिय कम्मबीयं" कहकर राग एवं द्वेष को सभी कर्मों के एवं पापों के बीज रूप बताया है . स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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