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अर्थात् मर्यादापूर्वक अथवा मर्यादा के साथ जो भव्य जनों द्वारा चर्या अर्थात् सेवनीय है वह 'आचार्य' है। जिनेन्द्र तीर्थकर द्वारा प्ररूपित आगमीय ज्ञान को हृदयंगम कर उसे आत्मसात करने की उत्कट उत्कण्ठा वाले अन्तेवासियों द्वारा जो विनय आदि पूर्ण मर्यादापूर्वक सेवित हो उनको 'आचार्य' कहा जाता है। जो सूत्र और अर्थ उभय के परिज्ञाता हों, उत्कृष्ट लक्षणों से संयुक्त हों, चतुर्विध संघ के लिए मेढिभूत अर्थात् आधार स्तम्भ के समान हों, जो अपने गण-गच्छ अथवा संघ को समस्त प्रकार के संतापों से पूर्णतः विमुक्त रखने में सर्वथा सक्षम हों तथा जो अपने शिष्यों को जैनागमों की गूढार्थ सहित वाचना देते हों, उन्हें आचार्य कहते हैं। जो पंचविध आचार अर्थात् ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तप-आचार और वीर्याचार का स्वयं सम्यक् प्रकार से प्रपालन, प्रकाशन, प्रसारण तथा उपदेश करते हैं तथा अपने अन्तेवासियों से भी उसी प्रकार का आचरण करवाते हैं, उन्हें “आचार्य" कहा जाता है। आचार्य को प्रदीप की उपमा से उपमित किया गया है, क्योंकि वह स्वयं प्रकाशित होते हुए औरों को भी प्रकाशमान कर देता है तथा उससे अन्य शतशः सहस्रशः दीप प्रदीप्त किये जा सकते हैं। श्रमण संघ में कतिपय पदों की व्याख्या का उल्लेख प्राप्त होता है। धर्म संघ का श्रमण-श्रमणीवर्ग सुदृढ़ संगठन तथा पूर्णरूपेण अनुशासन में रहते हुए सम्यग् रीति से ज्ञानाराधना तथा अध्यात्म साधना का निरन्तर उत्तरोत्तर समुत्कर्ष, धर्म का प्रचार-प्रसार-प्रभावना-अभ्युत्थान तथा निर्दोष रूपेण संयम और जीवन का निर्वाह कर सके, इसी दृष्टि से धर्म संघ में पदों की व्यवस्था की गई हैं। सप्तविध पदों का जहाँ उल्लेख प्राप्त होता है वहां आचार्य का पद सर्वप्रथम है।" यह यथार्थपूर्ण कथन है कि चतुर्विध धर्म संघ में 'आचार्य' का पद अप्रतिम, गौरव गरिमापूर्ण एवं सर्वोपरि माना जाता है। जैन धर्म के संगठन, संचालन, संरक्षण, संवर्द्धन, अनुशासन तथा सर्वतोमुखी समुत्कर्ष का सामूहिक एवं मुख्य उत्तरदायित्व आचार्य पर रहता है। वास्तव में आचार्य को तीर्थकर के समान एवं सकल संघ का नेत्र बताया गया है। आचार्य के प्रभावी व्यक्तित्व के माध्यम से चतुर्विध धर्मसंघ में सौहार्द का संचार होता है, फलतः श्रीसंघ विकसित एवं समुन्नत बनता है। ११. ध्यान
'झाण' प्राकृत भाषा का शब्द है। जैन आगम-साहित्य में उक्त शब्द का प्रयोग बहुविध-संदर्भो में हुआ है। 'झाण' का संस्कृत रूपान्तर 'ध्यान' बनता है। 'ध्यै' चिन्तायाम् धातु से 'ल्युट्' प्रत्यय होने पर 'ध्यान' शब्द निर्मित होता है। चेतना ... 134 -
स्वाध्याय शिक्षा
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