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दो प्रकार की है- प्रथम 'चल' चेतना और द्वितीय 'स्थिर' चेतना है। चंचल चेतना की संज्ञा 'चित्त' है तथा 'स्थिर' चेतना का नाम 'ध्यान' है। जैसे अग्नि की अपरिस्पन्दमान ज्वाला को 'शिखा' कहा जाता है वैसे ही चंचलता से रहित चेतना को 'ध्यान' कहा जाता है। किसी एक विषय में निरन्तर ज्ञान की अनुभूति होते रहना 'ध्यान' है। इस निरन्तरता को 'एकाग्रता' भी कहा जा सकता है अर्थात् 'एकाग्रज्ञान' ध्यान है। प्रस्तुत कथन में 'एकाग्र' का आशय 'व्यग्रता-रहित' लिया जायेगा। यह ध्यान मन, वाणी और शरीर की प्रवृत्तियों को युगपद् अर्थात् एक साथ अवरुद्ध करने पर होता है तथा इन तीनों की पृथक्-पृथक् प्रवृत्ति को रोकने पर भी होता है। इसी दृष्टि से मानसिक ध्यान, वाचिक ध्यान और कायिक ध्यान इस प्रकार ध्यान को त्रिविध रूप में रूपायित किया गया है। निष्कर्ष यह है कि आत्मा का आत्मा के द्वारा
आत्मा के विषय में एकाग्रता-पुरस्सर, चिन्तन और मनन करना यथार्थ रूपेण ध्यान है और यही ध्यान श्रेयस्कर है। १२. संलेखना . 'संलेहणा' शब्द प्राकृत भाषा का है। इस शब्द का प्रयोग आगम-साहित्य में अनेक स्थलों पर हुआ है।" संलेहणा के दो संस्कृत रूपान्तर प्राप्त होते हैं। प्रथम 'संलेखना' है और द्वितीय ‘सल्लेखना' है। 'लिख लेखने' धातु से 'युच्' प्रत्यय करने पर 'लेखना' शब्द निष्पन्न हुआ है। उक्त शब्द में 'सम्' उपसर्ग प्रयुक्त करने पर संलेखना एवं 'सत्' जोड़ने पर सल्लेखना शब्द निष्पन्न होता है। ये दोनों रूप जैन वाङ्मय में सम्प्राप्त हैं। जिस क्रिया के द्वारा शरीर और कषाय को दुर्बल एवं कृश . किया जाता है वह 'संलेखना' है। इसी अर्थ और आशय को अन्य स्थल पर स्वीकार किया गया है। चरम अनशन की विधि को 'संलेखना' कहा गया है। 'सल्लेखना' यह शब्द 'सत्' और 'लेखना' इन दोनों के संयोग से निर्मित हुआ है। सत् का अर्थ 'सम्यक्' है और लेखना का आशय 'कृश' करना है। समीचीन रूप से कृश करना, . यह सल्लेखना का अभिप्रेत अभिप्राय है। काय और कषाय ये दोनों कर्मबन्ध के मूलभूत हेतु हैं। इसीलिये उनको कृश करना ही सल्लेखना है। इसी भाव का सशक्त शब्दों में समर्थन भी प्राप्त होता है। वहाँ मरण के दो प्रकार प्रतिपादित हुए हैं-'नित्यमरण' और तद्भवमरण। तद्भवमरण को सुधारने के लिये 'संलेखना' का स्पष्टतः वर्णन है। जहाँ मरण के सप्तदश भेदों का स्पष्टतः उल्लेख प्राप्त होता है, वहाँ 'तद्भवमरण' का भी निरूपण हुआ है। 'काय' संलेखना को बाह्य संलेखना कहते हैं तथा कषाय संलेखना को आभ्यन्तर संलेखना कहा गया है। साधनाशील स्वाध्याय शिक्षा
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