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जैनागमों में शिक्षा का स्वरूप श्री दुलीचन्द जैन 'साहित्यरत्न'
जैनागमों में शिक्षा के संबंध में महत्त्वपूर्ण सामग्री प्राप्त होती है। आगम- परम्परा गुरु-शिष्य परम्परा से ही आगे बढ़ती रही है, अतः शिष्य में शिक्षार्जन / ज्ञानार्जन के लिए कैसी पात्रता आवश्यक है - इसका विधान आगमों में कई स्थानों पर हुआ है। कर्मठ समाजसेवी एवं शिक्षाविद् श्री दुलीचन्द जैन ने अपने आलेख में जीवन मूल्यात्मक शिक्षा को भारतीय शिक्षा प्रणाली में स्थान देने की प्रेरणा की है। -सम्पादक
वर्तमान भारतीय शिक्षा
भारतवर्ष की वर्तमान शिक्षा - प्रणाली परतंत्रता काल से ही अंग्रेजों द्वारा प्रचारित शिक्षा सिद्धान्तों पर आधारित है। स्वतंत्रता प्राप्ति के चौवन वर्षों के बाद भी उसमें कोई मौलिक परिवर्तन नहीं हुआ। एक विचारक ने ठीक ही कहा है कि वर्तमान भारतीय शिक्षा प्रणाली न तो “भारतीय” है और न ही वास्तविक "शिक्षा" है । स्वामी विवेकानन्द ने कहा है कि शिक्षा मात्र उन विविध जानकारियों का ढेर नहीं है, जो हमारे मस्तिष्क में ठूंस-ठूंस कर भर दी जाती हैं और जो आत्मसात् हुए बिना वहाँ जीवन भर रहकर गड़बड़ मचाया करती हैं। हमें उन विचारों की अनुभूति कर लेने की आवश्यकता है, जो 'जीवन-निर्माण', 'मनुष्य-निर्माण' तथा ' चारित्र - निर्माण' में सहायक हों।' सहस्रों वर्षों से इस देश में तीर्थंकरों, ऋषियों एवं आचार्यों ने मूल्य-आधारित शिक्षा प्रणाली का प्रचार किया। डॉ. अल्तेकर ने प्राचीन भारतीय शिक्षा के संदर्भ में लिखा है - " प्राचीन भारत में शिक्षा अन्तर्ज्योति और शक्ति का स्रोत मानी जाती थी जो शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्तियों के संतुलित विकास से हमारे स्वभाव में परिवर्तन करती और उसे श्रेष्ठ बनाती है ताकि हम एक विनीत और उपयोगी नागरिक के रूप में रह सकें। " " स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद शिक्षा पद्धति में परिवर्तन करने हेतु अनेक आयोगों का गठन हुआ और उन्होंने भी चरित्र - निर्माणकारी जीवन मूल्यों को शिक्षा में अन्तर्भूत करने पर जोर दिया। सन् १६६४ से सन् १६६६ तक डॉ . दौलतसिंह कोठारी, जो एक प्रतिष्ठित वैज्ञानिक थे, की अध्यक्षता में कोठारी आयोग का गठन हुआ । इसने अपने प्रतिवेदन में कहा- “केन्द्रीय एवं प्रांतीय सरकारों को नैतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों पर आधारित शिक्षा का प्रबंध अपनी अधीनस्थ संस्थाओं में करना चाहिए। " सन् १९७५ में राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद् (NCERT) ने अपने प्रतिवेदन में कहा- “विद्यालय पाठ्यक्रम की रचना इस ढंग से की जाए कि चारित्र-निर्माण शिक्षा का एक प्रमुख उद्देश्य बने । "
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