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के आने पर भी वे साधना-समर में पूर्ण विजयी हुए। साधना क्रम में प्राप्त अन्तरायों को सहने में महावीर की महावीरता स्तुत्य है
हयपुब्बो तत्थदंडेण अदुवा मुट्ठिणा अदु कुंताइ-फलेणं, अदु लेलुणा कवालेणं हंता हंता बहवे कंदिसु । सूरो संगामसीसे वा संवुडे तत्थ से महावीरे, पडिसेवमाणे फरुसाइं अचले भगवं रीइत्था।।"
अर्थात् साधना-काल में लाढ देश में कुछ लोग दण्ड, मुष्टि, भाला आदि शस्त्र, चपेटा, मिट्टी के ढेले और कपाल (खप्पर) से भगवान पर प्रहार करते हुए खुशी से चिल्लाते थे। जैसे कवच पहने हुआ योद्धा संग्रामशीर्ष में विचलित नहीं होता, वैसे ही संवर का कवच पहने हुए भगवान कष्टों को झेलते हुए ध्यान से विचलित नहीं होते थे। वे परीषहों के भयंकर समर को जीत कर विजेता बन गए, वीर बन गये।
वैभव के वर्णन में भी लम्बे-लम्बे सामासिक पदों का प्रयोग देखा जाता है, जहां ओजगुण का आधिक्य है। उपासकदशाध्ययन में आनन्द की समृद्धि का उदाहरण द्रष्टव्य है
दित्ते वित्ते विच्छिण्णविउलभवणसयणासणजाणबाहणे बहुधण। जायरूवरयए आओगपओगसंपउत्ते विछिड्डियपउरभत्तपाणे
बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूए बहुजणस्स.....।। __ अर्थात् धनाढ्य आनन्द-दीप्त प्रभावशाली) भवन, शयन आसन और यानादि से सम्पन्न था। उत्कृष्ट सुवर्ण एवं चांदी, सिक्के आदि प्रचुर धन का स्वामी था। आयोग- प्रयोग सम्प्रवृत्त-व्यावसायिक दृष्टि से वह धन के सम्यग विनियोग और प्रयोग में, नीतिपूर्वक द्रव्योपार्जन में संलग्न था। उसके यहाँ भोजन कर चुकने के बाद भी बहुत से खाद्य पदार्थ बचते थे। उसके घर में बहुत से नौकर, नौकरानियाँ, गाय, भैंस, बैल, बकरियाँ आदि थीं।
बीभत्स और रौद्र रसों में ओजगुण का आधिक्य होता है। आगमों में अनेक स्थलों पर बीभत्स और रौद्र रस की उपस्थिति देखी जा सकती है। उपासकदशासूत्र में कामदेव, चुलनीपिता, सुरादेव, चुल्लशतक आदि के जीवन में बीभत्स एवं रौद्ररसों की उपस्थिति से,ओज गुण की विद्यमानता देखी जा सकती है। प्रसाद गुण- इसके आधार रूप में चित्त का व्यापकत्व सन्निहित है। श्रवण मात्र से ही जो रचना चित्त में सहज रूप से व्याप्त हो जाए उसे प्रसाद गुण कहते हैं। आचार्य मम्मट कहते हैं कि सूखे ईंधन में अग्नि के सदृश या धुले वस्त्र में स्वच्छ जल
स्वाध्याय शिक्षा
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