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ने इसी मनोवैज्ञानिक तथ्य के आधार पर अहिंसा को स्थापित किया है। यद्यपि मेकेंजी ने "भय' को अहिंसा का आधार माना है, किन्तु उसकी यह धारणा गलत है, क्योंकि भय के सिद्धान्त को यदि अहिंसा का आधार बनाया जायेगा तो व्यक्ति केवल सबल की हिंसा से विरत होगा, निर्बल की हिंसा से नहीं। भय को आधार मानने पर तो जिससे भय होगा उसी के प्रति अहिंसक बुद्धि बनेगी, जबकि आचारांग तो प्राणियों के प्रति यहां तक कि वनस्पति, जल और पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति भी अहिंसक होने की बात कहता है। अतः आचारांग में अहिंसा को भय के आधार पर नहीं, अपितु जिजीविषा और सुखाकांक्षा के मनोवैज्ञानिक सत्यों के आधार पर प्रतिष्ठित किया गया है। पुनः अहिंसा को इन मनोवैज्ञानिक सत्यों के साथ-साथ तुल्यता बोध के बौद्धिक सिद्धान्त पर खड़ा किया गया। वहां कहा गया है कि 'जे अज्झत्थं जाणइ से बहिया जाणइ.... एयं तुल्लमन्नेसिं-1.1.7। जो अपनी पीड़ा को जान पाता है वही तुल्यता बोध के आधार पर दूसरों की पीड़ा को समझ सकता है। प्राणीय पीड़ा की तुल्यता बोध के आधार पर होने वाला यह आत्मसंवेदन ही अहिंसा का आधार है। सूत्रकार तो अहिंसा के इस सिद्धान्त को अधिक गहराई तक अधिष्ठित करने के प्रयास स्वरूप यहां तक कह देता है कि जिसे तू मारना चाहता है, पीड़ा देना चाहता है, सताना चाहता है, वह तू ही है (आचारांग, १.५.५)। आगे कहता है कि जो लोग (लोक) का अपलाप करता है वह स्वयं अपनी आत्मा का अपलाप करता है (आचारांग १.२.३)। यहां अहिंसा को अधिक गहन मनोवैज्ञानिक आधार देने के प्रयास में वह जैन दर्शन के आत्मा संबंधी अनेकात्मवाद के स्थान पर एकात्मवाद की बात करता सा प्रतीत होता है, क्योंकि यहां वह इस मनोवैज्ञानिक सत्य को देख रहा है कि केवल आत्मभाव में हिंसा असम्भव हो सकती है। जब तक दूसरे के प्रति परबुद्धि है, परायेपन का भाव है, तब तक हिंसा की संभावनाएं उपस्थित हैं। व्यक्ति के लिए हिंसा तभी असंभव हो सकती है जब उसमें प्राणी जगत् के प्रति अपनत्व या आत्मीय दृष्टि जागृत हो। अहिंसा की स्थापना के लिए जो मनोवैज्ञानिक भूमिका अपेक्षित थी उसे प्रस्तुत करने में सूत्रकार ने आत्मा की वैयक्तिकता की धारणा का भी अतिक्रमण कर उसे अभेद की धारणा पर स्थापित करने का प्रयास किया है। हिंसा के निराकरण के प्रयास में भी सूत्रकार ने एक ओर इस मनोवैज्ञानिक सत्य को उजागर किया है कि हिंसा से हिंसा या घृणा से घृणा का निराकरण संभव नहीं है। वह तो स्पष्ट रूप से कहता है- शस्त्रों के आधार पर या भय और हिंसा के आधार पर शान्ति की स्थापना संभव नहीं है, क्योंकि एक शस्त्र
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