________________
जैनागमों में शिक्षार्थी का स्वरूप
डॉ. राजीव प्रचण्डिया एम.ए.संस्कृत, बी-एस.सी., एल-एल.बी., पी-एच.डी. शिक्षा ज्ञान-प्राप्ति का प्रमुख साधन है। जैनागमों में शिक्षा-प्राप्ति को लेकर गहन विचार मिलते हैं। शिक्षा के साधक एवं बाधक कारणों का कथन करने के साथ विनयभाव पर बल दिया गया है। इन्द्रिय निग्रह भी आवश्यक माना गया है। डॉ. प्रचण्डिया ने आगम-वाङ्मय के आधार पर शिक्षार्थी की विशेषताओं का इस आलेख में निरूपण किया है। -सम्पादक
वैज्ञानिक और क्रमबद्ध ढंग से जीव और जगत् का, लोक और अलोक का, ज्ञान और विज्ञान का, आत्मा और परमात्मा का, जैन आचार और विचार का, जैन धर्म-दर्शन और संस्कृति आदि का निदर्शन जिस शास्त्र में हो, वह शास्त्र वस्तुतः जैनागम कहलाता है। जैनागम जैनधर्म के उन्नायक तीर्थकरों की आत्म साधना का नवनीत है। विशेषावश्यक भाष्य की गाथा ५५६ में यह स्पष्ट रूप से वर्णित है कि जिससे सही शिक्षा प्राप्त होती है, विशेष ज्ञान उपलब्ध होता है, वह शास्त्र आगम या श्रुत ज्ञान कहलाता है।
लोकालोक में प्राणवन्त जीवधारियों के कल्याणार्थ-मंगलार्थ तीर्थंकरों की देशना से बढ़कर और कौनसी सही और सार्थक शिक्षा होगी, जिसमें हेय, ज्ञेय और उपादेय मुखरित हो ? संभवतः कोई नहीं। यद्यपि जैनागमों का कैनवास विपुल है तथापि उसमें मुख्यरूपेण जीवन जीने की कला के साथ-साथ मरने की कला का अर्थात् जन्म, जीवन और मरण की सार्थकता का प्रामाणिक रूप से निरूपण हुआ है जिसके कारण जैनागम सार्वभौमिक व सार्वकलिक कहे गए हैं। जिन जैनागमों में शिक्षा के रूप-स्वरूप पर विस्तार पूर्वक विवेचन-विश्लेषण हुआ है, उनमें प्रमुख हैं-आचारांग सूत्र, उत्तराध्ययन सूत्र, दशवैकालिक सूत्र, भगवती सूत्र, अन्तकृतदशांग सूत्र, स्थानांग सूत्र, समवायांग सूत्र, सूत्रकृतांग सूत्र आदि।
प्रस्तुत आलेख में जैनागमों में शिक्षा का रूप और शिक्षार्थी का स्वरूप पर संक्षेप में चर्चा करना हमें ईप्सित है।
शिक्षा शब्द 'शिक्ष्' धातु से बना है जिसका अर्थ है सीखना। प्रश्न है क्या सीखा जाए? अधिकांशतः यह कहा सुना जाता है कि अज्ञान की अपेक्षा ज्ञान का सीखना होता है। पर, ज्ञान तो प्रत्येक आत्मा में विद्यमान रहता है। यह आत्मा का स्वाभाविक गुण है, फिर उसका सीखना कैसा? जैनागम में आत्मा और ज्ञान के संदर्भ
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org