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________________ में कहा गया है कि जिस प्रकार अगाध जल से परिपूर्ण स्वयंभूरमण समुद्र अनेक प्रकार के रत्नों से भरपूर है, उसी प्रकार बहुश्रुत आत्मा अक्षय ज्ञान गुण से परिपूर्ण होता है। यथा "जहा से संयभूरमणे, उदही अक्ख-ओदए। नाणारयणपडिपुण्णे, एवं हवइ बहुस्सुए।।" -उत्तराध्ययनसूत्र 11.30 वास्तव में ज्ञान आत्मा का ही एक गुण है। अस्तु वह आत्मा से कभी भिन्न हो ही नहीं सकता। जो ज्ञान आत्मा में प्रच्छन्न है, अज्ञान के अनेक आवरणों से आच्छादित है, उन आवरणों को हटाने की प्रक्रिया का नाम सीखना है, शिक्षा है। जीवन का सार है प्रगति और प्रगति का आधार है ज्ञान। यह ज्ञान क्रिया से भी अन्यतम रूप में इसीलिए जुड़ा रहता है और अनुभव यह कहता है कि क्रिया में ही ज्ञान का यथार्थ स्वरूप प्रकट होता है। सम्यक् क्रियापरक ज्ञान ही सम्यक् ज्ञान होता है, यही मोक्ष का आधार है और इसी के द्वारा 'स्व' और 'पर' का कल्याण होता है। इस प्रकार ज्ञान के आवरणों को हटाना जहां शिक्षा है, वहीं उसका दूसरा पहलू मोक्ष है। ... अज्ञान आवरणों को हटाने के लिए जैनागम में स्वाध्याय पर विशेष बल दिया गया है। सतत स्वाध्याय से साधक में ज्ञान का दीप सदा प्रज्वलित रहता है और अज्ञान के घेरे समाप्त होते हैं, जैसा कि उत्तराध्ययन सूत्र के अध्ययन १६ की गाथा २४ में कहा गया है कि ज्ञान की आराधना करने से जीव अज्ञान का क्षय करता है। यथा ___ "सुयस्स आराहणयाए णं अन्नाणं खवेइ।" अज्ञान का पर्दा जब हट जाता है तब मनुष्य के सभी दुःखों का कारण समाप्त हो जाता है और मनुष्य दुःखों से आत्यन्तिक निवृत्ति पा लेता है। यथा "सज्झाए वा निउत्तेणं। सव्वदुक्खादिमोक्खाणे।।'' -उत्तराध्ययन सूत्र अ.26 गाथांक 10 जैनागमानुसार स्वाध्याय का अर्थ केवल शब्द ज्ञान नहीं है, प्रत्यत उसका अभिप्राय है- अर्थ समझ कर पठन-पाठन। स्वाध्याय का जो मुख्य प्रयोजन है, वह है मनुष्य अपनी सारी चित्तवृत्तियों को 'पर' से हटाकर 'स्व' पर केन्द्रित करे, जिससे 'स्व' का स्वरूप उजागर हो सके। जिसमें 'स्व' जग जाता है उसका स्वाध्याय सार्थक होता है, शिक्षा भी पूर्ण होती है। शिक्षार्जन का तात्पर्य है जीवन की समस्याओं का 102 स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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