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________________ निर्विकार रूप से निराकरण कर सकने में समर्थ होना। क्योंकि जीवन एक पहेली है, जो इस पहेली को सहज सुलझा लेता है, सही अर्थों में वह शिक्षा के मर्म को समझ लेता है। निरन्तर और नियमित स्वाध्याय से एक ओर जहां पदार्थ का बोध होता है वहीं दूसरी ओर भेद-विज्ञानात्मक दृष्टि भी विकसित होती है अर्थात् स्वाध्याय रत साधक में पदार्थ के बोध होने पर क्या हेय है और क्या उपादेय है, यह सोच समझ प्रभूतता के साथ प्रतिबिम्बित हो उठती है। जैनागमान्तर्गत आचारांग सूत्र में स्वाध्यायी की इस बोधात्मक स्थिति को ज्ञ-परिज्ञा तथा भेद विज्ञानात्मक दृष्टि को प्रत्याख्यान-परिज्ञा कहा गया है। ज्ञ-परिज्ञा की स्थिति में स्वाध्यायी ज्ञान ग्रहण करता है और प्रत्याख्यान-परिज्ञा में स्वाध्यायी साधक बन जाता है। अर्थात् अपने चरित्र को निर्मल बनाए रखने का सतत प्रयास करता है। पंचकल्प भाष्य में सम्पूर्ण शिक्षार्जन अर्थात् स्वाध्याय के लिए दो चरण निरूपित हैं- एक ग्रहण और दूसरा आसेवन। ग्रहण और आसेवन के द्वारा ही साधक सम्पूर्ण शिक्षा प्राप्त कर सकता है। ग्रहण और आसेवन में ही स्वाध्याय की पाँच विधियाँ समाहित हैं। यथा१. वाचना २. पृच्छना ३. परिवर्तना ४. अनुप्रेक्षा ५. धर्मोपदेश प्रथम शताब्दी के बहुश्रुत कवि तिरूवल्लियार ने भी अपनी काव्यकृति 'कुरल' में ग्रहण और आसेवन को ही महत्त्व दिया है। जिसमें उन्होंने कहा है कि "प्राप्त करने योग्य ज्ञान को पूरी तरह से प्राप्त करो और जो ज्ञान प्राप्त किया है उसका अनुकरण करो अर्थात् अपने जीवन में उतारो।" इस प्रकार स्वाध्याय के माध्यम से साधक बोध और विवेक को प्राप्त कर 'स्व' और 'पर' के कल्याण में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। जैनागम में यह स्पष्ट रूप से अंकित है कि जैन शिक्षा चाहे लौकिक हो या अलौकिक, दोनों के मूल में विनय है। क्योंकि शिक्षा का वास्तविक प्रस्फुटन 'विनय' में ही है। उत्तराध्ययन सूत्र के सत्ताइसवें अध्याय में यह उल्लेख है कि ग्रहण शिक्षा और आसेवन शिक्षा दो महत्त्वपूर्ण तत्त्वों में समायोजित है- विनय और अनुशासन में। विनय और अनुशासन के अभाव में कोई भी व्यक्ति या साधक न तो शिक्षाशील स्वाध्याय शिक्षा __103 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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