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होता है, जिससे चित्त का निरोध होता है, तथा जिससे आत्मा विशुद्ध होती है। यह आध्यात्मिक शिक्षा का स्वरूप है । दशवैकालिक सूत्र में शिक्षा के चार उद्देश्य बताए
गए
१. मुझे श्रुतज्ञान ( आगम का ज्ञान ) प्राप्त होगा। अतः मुझे अध्ययन करना चाहिए। २. मैं एकाग्रचित्त होऊँगा । अतः अध्ययन करना चाहिए।
३. मैं अपने आपको धर्म में स्थिर बनाऊँगा, इसलिए मुझे अध्ययन करना चाहिए। मैं स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थिर बनाऊँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए।
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इस प्रकार शिक्षा का उद्देश्य मात्र अक्षर - ज्ञान नहीं माना गया। शिक्षा द्वारा चित्त की एकाग्रता एवं बुद्धि की स्थिरता प्राप्त होनी चाहिए तथा शिक्षार्थी धर्म के जीवन मूल्यों को अपनाने के योग्य बने । एकाग्रता के बिना व्यक्ति किसी भी क्षेत्र में सफल नहीं हो सकता। एक व्यक्ति शिक्षित हो पर मानसिक एकाग्रता से शून्य हो, उसे शिक्षा की विडंबना ही कहना चाहिए। इसी बात को स्वामी विवेकानन्द ने कहा"हमें ऐसी शिक्षा चाहिए, जिससे चरित्र का निर्माण हो, मानसिक बल बढ़े, बुद्धि का विकास हो और जिससे मनुष्य अपने पैरों पर खड़ा हो सके।" यही भारतीय संस्कृति का उद्घोष है, जो सनातन काल से चला आ रहा है। उपनिषद् में कहा है“सा विद्या या विमुक्तये" अर्थात् विद्या वही है जो हमें विमुक्त करती है । विद्या किस चीज से विमुक्त करती है ? तो कहा गया कि हममें जो दुःख की स्थिति है, आकुलता और व्याकुलता है, तनाव की स्थिति है, ये चाहे शारीरिक स्तर पर हों या मानसिक स्तर पर, उनसे मुक्ति का साधन विद्या ही है।
प्राचीन काल में विद्या के दो भेद कहे गए - विद्या और अविद्या । अविद्या का अर्थ अज्ञान नहीं है, अविद्या का अर्थ है- भौतिक ज्ञान और विद्या का अर्थ हैआध्यात्मिक ज्ञान। जिस प्रकार से एक स्कूटर दो पहियों के बिना नहीं चल सकता है, वैसे ही भौतिक एवं आध्यात्मिक दोनों ज्ञानों का सामंजस्य नहीं हो तो जीवन की गाड़ी नहीं चलती। शिक्षा के ये संस्कार हमारे राष्ट्र की संपदा हैं, अनमोल धरोहर हैं। हमारे देश में भौतिक ज्ञान की अवहेलना नहीं की गई, किन्तु उसके साथ आध्यात्मिक ज्ञान को अपनाने पर अधिक जोर दिया गया। जैन आचार्यों ने शिक्षा के स्वरूप की व्याख्या करते हुए अध्यात्म - विद्या को महाविद्या की संज्ञा प्रदान की। ऋषिभाषित सूत्र में आया है
"इमा विज्जा महाविज्जा, सव्वविज्जाण
स्वाध्याय शिक्षा
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उत्तमा ।
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