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________________ जिसका परिणाम वस्तु के अस्वरूप के निराकरण पूर्वक स्वरूप का निश्चय अवाय है। यदि अवग्रह में वस्तु की किसी भी विशेषता का किंचित् भी ज्ञान नहीं हुआ हो तो वह पूर्णतया अज्ञात होगी तथा अज्ञात वस्तु के प्रति किसी भी प्रकार का संशय, ईहादि संभव नहीं है। श्रुतज्ञान की मतिपूर्वकता अकलंक श्रुतज्ञान की मतिपूर्वकता तथा मानसिकता को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- इन्द्रिय तथा मन का अवलम्बन लेकर पहले जाने गये पदार्थ में मन की प्रधानता से होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहलाता है। ईहादि के मन निमित्तक होने के कारण श्रुतज्ञान नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उनका विषय अवगृहीत पदार्थ ही होता है, जबकि श्रुतज्ञान नवीनता लिये हुए होता है। एक घट को इन्द्रिय तथा मन के द्वारा "यह घट है", इस प्रकार निश्चित करने के उपरान्त जो पहले नहीं जाने गये तज्जातीय तथा देशकालादि की दृष्टि से विलक्षण अनेक घटों को जानता है वह श्रुतज्ञान है, अथवा एक अर्थ का अनेक प्रकार से प्ररूपण करना श्रुतज्ञान है, इन्द्रिय और मन के द्वारा जीवादि पदार्थों को जानकर उनका सत्, संख्या, क्षेत्र, अन्तर, काल, अल्पबहुत्वादि अनेक प्रकार से प्ररूपण करना श्रुतज्ञान है अथवा श्रुतज्ञान इन्द्रिय और मन द्वारा गृहीत अगृहीत पर्याय वाले शब्द और उनके वाच्यार्थ जीवादि को श्रोत्रेन्द्रिय के व्यापार के बिना विभिन्न नयों के द्वारा जानता है।' श्रुतज्ञान श्रुतपूर्वक भी होता है, लेकिन परम्परागत रूप से वह भी मतिज्ञान पर आधारित है। अकलंक कहते हैं कि 'घट' शब्द को सुनकर पहले घट अर्थ का ज्ञान तथा उस श्रुतज्ञान से जलधारणादि कार्यों का जो द्वितीय श्रुतज्ञान होता है वह श्रुतपूर्वक श्रुतज्ञान है। यहाँ प्रथम श्रुतज्ञान के मतिपूर्वक होने से द्वितीय श्रुतज्ञान में भी मतिपूर्वकत्व का उपचार कर लिया जाता है, अथवा पूर्व शब्द व्यवहित पूर्व को भी कहता है, तथा साक्षात् या परम्परया मतिपूर्वक उत्पन्न होने वाला ज्ञान श्रुतज्ञान कहा जाता है। मतिज्ञान श्रुतज्ञान का आधार है। वही पदार्थ श्रुतज्ञान का विषय हो सकता है जिसे पहले मतिज्ञान द्वारा जान लिया गया है। कभी कोई ऐसा पदार्थ श्रुतज्ञान का विषय नहीं हो सकता जो व्यक्ति की मतिज्ञान की सीमा से पूर्णरूपेण परे हो। इन दोनों में कार्य-कारण संबंध है तथा मतिज्ञान के अभाव में, मतिज्ञान की व्यापकता के अभाव में श्रुतज्ञान की सत्ता और व्यापकता असंभव है। उमास्वाति कृत सूत्र “श्रुतं मतिपूर्वम्" का अर्थ स्पष्ट करते हुए मलयगिरि कहते हैं कि जिसके द्वारा कार्य को 96 - स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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