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आकांक्षा 'ईहा' हैं। जैसे 'यह पुरुष है' ऐसा आद्य ग्रहण होने पर पुनः उसकी भाषा, उम्र, रूपादि विशेष स्वरूप को जानने की आकांक्षा ईहा कहलाती है। भाषादि विशेषताओं के द्वारा वस्तु के विशेष स्वरूप का निश्चय 'अवाय' है। जैसे यह दक्षिणी है, युवा है, गौरवर्ण है इत्यादि। निश्चित विशेषस्वरूप की कालान्तर में स्मृति के कारण को "धारणा" कहा जाता है।
जिनभद्रगणि ने अवग्रह की अवस्था को ज्ञान न मानकर दर्शन कहा है तथा उसे पूर्णतया सामान्यमात्रग्राही माना है। उनके अनुसार अवग्रह में वस्तु का सभी विशेषताओं से रहित पूर्णरूपेण सामान्य ग्रहण होता है। अवगृहीत अर्थ के विशेष स्वरूप को जानने के लिये ईहा होती है, जिसके फलस्वरूप अवाय में ही वस्तु के विशेष स्वरूप का ग्रहण होता है। उदाहरण के लिये सर्वप्रथम जिस शब्द का प्रतिभास होता है, उसमें इस निश्चय का अभाव होता है कि "यह शब्द है, अशब्द नहीं" यह स्थिति अवग्रह है। अवगृहीत अर्थ के प्रति “यह शब्द है या अशब्द" इस प्रकार की जिज्ञासा ईहा है। इसके पश्चात् उत्पन्न होने वाला अवाय "यह शब्द ही है" वस्तु के विशेष स्वरूप का निश्चयात्मक बोध है। यदि अवग्रह को ही वस्तु के विशेष स्वरूप का निश्चायक मान लिया जाय तो सभी ज्ञान अवग्रह ही हो जायेंगे तथा अवाय की सत्ता ही नहीं रहेगी।
अकलंक ने अवग्रह को निश्चयात्मक माना है तथा उनके परवर्ती अधिकांश जैन दार्शनिक इसी सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। वादिदेव कहते हैं कि दर्शन और अवग्रह में भेद है क्योंकि इनके कारण भिन्न-भिन्न हैं। जिस प्रकार मिट्टी और तन्तु रूप भिन्न-भिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण घट और पट भिन्न-भिन्न हैं उसी प्रकार दर्शनावरणीय और अवग्रहज्ञानावरणीय कर्म के क्षयोपशम रूप भिन्न-भिन्न कारणों से उत्पन्न होने के कारण दर्शन और अवग्रह में भेद है।' दर्शन इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष के प्रथम क्षण में होने वाला संज्ञामात्र का अवलोकन है। इस स्तर पर किसी भी प्रकार के निश्चय का पूर्ण अभाव होता है। अवग्रह की उत्पत्ति दर्शन के पश्चात् होती है तथा यह मनुष्यत्व आदि अवान्तर जाति के निश्चयपूर्वक 'यह मनुष्य है' रूप निश्चयात्मक ज्ञान है। वास्तव में यदि अवग्रह में वस्तु की किसी भी विशेषता का किंचित् भी ज्ञान नहीं हो तो उसके प्रति किसी भी प्रकार का संशय तथा उस संशय की निवृत्ति हेतु अन्वेषण-ईहा नहीं हो सकती। संशय की उत्पत्ति वस्तु की सामान्य-व्यापक धर्मों के ज्ञात होने पर तथा विशेष व्याप्य धर्मों के ज्ञात नहीं होने पर होती है। इस संशय के निराकरण के लिये ईहा होती है . स्वाध्याय शिक्षा
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