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________________ जैन आगमों में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का सम्बन्ध डॉ. राजकुमारी जैन मतिज्ञान एवं श्रुतज्ञान सभी संसारी सम्यग्दृष्टि जीवों में तथा मतिअज्ञान एवं श्रुतअज्ञान सभी मिथ्यादृष्टि जीवों में पाये जाते हैं। प्रायः श्रुतज्ञान के स्वरूप को परिभाषित करते हुए कहा जाता है कि यह मतिज्ञानपूर्वक होता है। लेखिका ने नन्दीसूत्र, विशेषावश्यक भाष्य आदि के आधार पर सिद्ध किया है कि कभी मतिज्ञान भी श्रुतज्ञानपूर्वक होता है। -सम्पादक जैन दर्शन के अनुसार मतिज्ञान और श्रुतज्ञान का सद्भाव समस्त संसारी प्राणियों में होता है। संज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों, विशेष रूप से मानव में मतिज्ञान और श्रुतज्ञान घनिष्ठ रूप से संबंधित हैं। एक ओर तो जैन आचार्यों द्वारा श्रुतज्ञान की मतिपूर्वकता का प्रतिपादन किया गया है तो दूसरी ओर नन्दीसूत्र, विशेषावश्यक भाष्य आदि आगम ग्रन्थों में मतिज्ञान के श्रुतनिश्रित और अश्रुतनिश्रित भेद भी किये गये हैं। यहाँ हम पहले मतिज्ञान के स्वरूप तथा फिर मति - श्रुतज्ञान के पारस्परिक संबंध की विवेचना प्रस्तुत कर रहे हैं। मतिज्ञान का स्वरूप जैन दार्शनिकों के अनुसार इन्द्रिय और मन द्वारा विषय के साक्षात्कार से उत्पन्न ज्ञान को मतिज्ञान कहा जाता है । इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष के उपरान्त चेतना की निर्विकल्पक स्थिति को "दर्शन" तथा इसके पश्चात् उत्पन्न होने वाला निश्चयात्मक बोध ही “ज्ञान” कहलाता है । इन्द्रियों के द्वारा वस्तु का स्वरूप द्वितीय क्षण में ही स्पष्टतया ज्ञात नहीं हो जाता । इन्द्रिय प्रत्यक्ष कई क्षणों तक निरन्तर चलती रहने वाली प्रक्रिया है, जिसमें वस्तु का स्वरूप क्रमशः अस्पष्ट रूप से ज्ञात होते हुए स्पष्ट होता है। पूज्यपाद मतिज्ञान का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ स्पष्ट करते हुए कहते हैं- "इन्द्रिय तथा मन के माध्यम से यथायोग्य पदार्थ जिसके द्वारा मनन किये जाते हैं, जो मनन करता है तथा मनन करना मात्र मतिज्ञान है।"" हरिभद्र कहते हैं- " मनन करना, अर्थात् वस्तु के स्थूल धर्मों को जानते हुए सूक्ष्म धर्मों का आलोचन करने वाली बुद्धि मति है।”” उमास्वामी के अनुसार इन्द्रिय तथा मन के निमित्त से शब्द, रूप, रस, स्पर्श और गन्धादि विषयों में अवग्रह, ईहा, अवाय तथा धारणा रूप से जो ज्ञान होता है, वह मतिज्ञान है। 723 अकलंक मतिज्ञान की प्रक्रिया को स्पष्ट करते हुए कहते हैं- विषय - विषयी का सन्निधान होने पर वस्तु का दर्शन होता है। इसके उपरान्त होने वाले पदार्थ का आद्य ग्रहण 'अवग्रह' कहलाता है । अवगृहीत अर्थ के विशेष स्वरूप को जानने की Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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