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________________ में पिंड एषणा तथा ग्रहण एषणा का वर्णन है। निर्दोष आहार मनशुद्धि का प्रेरक है, सत्त्व गुण का वर्द्धक है। दिगंबर आगमों में दिन में एककाल आहार एवं प्रासुक जल का विधान है। निर्दोष आहार से सत्त्वगुण में वृद्धि होती है। पाचन-गुणांक समृद्ध होता है। इससे आचार शुद्धि भी होती है। आचार शुद्धि के अंतर्गत आठ प्रवचन-माताओं की आगमों में चर्चा है। दैनिक या अन्य कोटि के प्रतिक्रमण पाठ का उपदेश है। अनेक व्रत-उपवासों, भिक्षु प्रतिमाओं का विधान है। सामाचारी-दिनचर्या का भी उल्लेख है। पाँच समिति, तीन गुप्ति, परीषह-जय आदि का वर्णन है, जिससे यत्नपूर्वक चलना, बैठना, स्वाध्याय करना आदि प्रवृत्तियों में स्थिरता आती है। उनसे अहिंसक जीवन भी अभिवर्धित होता है। सामान्यतः आचार-शुद्धि शरीर क्रियाओं में शुद्धि की प्रतीक मानी जाती है। बाहरी आचार के पालन से अंतरंग क्रियाओं की वृत्ति में परिवर्तन होता है, जिससे शारीरिक ऊर्जा भी बढ़ती है। आहार-शुद्धि के अंतर्गत भाव-शुद्धि और मन-शुद्धि भी आती है। मनः शुद्धि का आज सामान्य जन के लिये भी महत्त्व बढ़ गया है। मनः शुद्धि या भाव शुद्धि के लिये आगमों में मंत्र-जप, प्रार्थना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय एवं ध्यान योग के विस्तृत विवरण है। ये सभी प्रक्रियाएँ (अंतःस्रावों को परिवर्तित कर) मानसिक उद्वेगों को शांत करने में सहायक होती हैं। प्रार्थना, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय आदि से मन एकाग्र होता है। ध्यान योग का विज्ञान अनेक प्राचीन एवं नवीन ग्रंथों में है। विभिन्न प्रकार के ध्यान में होने वाले भावशुद्धि गत प्रभावों का अनेक आगमों में वर्णन है। आचारांग मे भी भ. महावीर के आसन एवं ध्यान मुद्राओं का वर्णन है। आगमों में ध्यान और उनके प्रभावों की अनेकत्र चर्चा है, पर उसकी क्रियाविधि तथा मात्रा की वैज्ञानिकता सिद्ध हुई है। हार्वर्ड और ऑक्सफोर्ड के वैज्ञानिकों ने तथा फिर पेडलर के प्रयोगों ने यह सिद्ध किया है कि ध्यान एवं उपवासों से आंतरिक ऊर्जा में पर्याप्त वृद्धि होती है और मस्तिष्क की चंचल तरंगों की प्रवृत्ति में स्थिरता आती है। यह ऊर्जा शरीर के सभी अंगों में व्याप्त होती है। साधुओं की ऊर्जा उन्हें प्रणाम करते समय, चरण स्पर्श करते समय, भावनाओं, मंत्रों एवं विचारों से भक्तों को मिलती है और वे शुभतर पथ की ओर अग्रसर होते हैं। उपवासों का भी एक विज्ञान है और उनसे शरीर क्रियात्मक तंत्र को कितना लाभ होता है यह बेंशन के प्रयोगों से पता चलता है। __आगमों में अध्यात्म की ओर अभिमुख होने की जो प्रक्रियाएँ बताई गई हैं, उन्हें बीसवीं सदी के प्रारंभ तक विज्ञान के क्षेत्र से बाहर ही माना जाता था। पर ये स्वाध्याय शिक्षा 29 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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