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________________ विकास प्रदर्शित करता है। श्वेताम्बर आगमों के समान दिगम्बर आगमकल्प ग्रंथों में भी उपर्युक्त विषयों से संबंधित अनेकानेक वैज्ञानिक विवरण पाये जाते हैं। षट्खण्डागम ग्रंथ में गणित एवं जीव विज्ञान का अच्छा मनोवैज्ञानिक निरूपण है, जबकि कषायप्राभृत में मानव की कषायों के रूप में मानसिक प्रवृत्तियों का अच्छा दिग्दर्शन है। मूलाचार तो दिगंबरों का आचारांग है जिसमें जीव विज्ञान, आहार विज्ञान, मरण विज्ञान आदि अनेक विषय आये हैं। भगवती आराधना में मनुष्य के जन्म एवं शरीर रचना के विषय में तंदुलवेयालिय के समान विवरण है। यह वर्तमान ज्ञान के आधार पर तुलनात्मकतः अध्येय है। तुलनात्मक अध्ययन करने पर यह देखा गया है कि अनेक वैज्ञानिक विवरणों में जैनों की दोनों मान्यताओं में किंचित् भिन्नता पाई जाती है। यह अस्वाभाविक भी नहीं है। आगमों में विज्ञान : अमूर्त जगत् अमूर्त जगत् के विज्ञान को अध्यात्म ज्ञान, पराविज्ञान या अधि विज्ञान कहते हैं। यह क्षेत्र अभी भौतिक विज्ञानियों के द्वारा आक्रांत नहीं हो पाया है, यह दृश्य जगत से परे है तथापि वैज्ञानिक अब यह कहने से नहीं चूकते कि चेतना सूक्ष्म अनुभव हो सकती है। इसका अर्थ यह है कि 'अमूर्त' का अर्थ पूर्णतः मूर्तता का अभाव नहीं, स्पष्ट मूर्तता के अभाव के रूप में लेना चाहिए। हमारे आगम इस अमूर्त जगत के स्रष्टा एवं चरम विकासक हैं। चेतना की अमूर्त शुद्ध दशा को आत्मा कहा गया है। इसके सामान्य मूर्तरूप को 'जीव' कहा गया है। ‘आगम शब्दकोष' के आधार पर आगमों में 'जीव' और 'आत्मा' शब्दों के प्रयोग का अनुपात ३ : २ है। आत्मवाद प्रस्तुत होने पर अनीश्वरवादी और व्यवहारवादी दर्शन चार्वाक को समग्रतः तिरस्कृत किया गया और मूर्त जीव को अमूर्त आत्मा के अनंत चतुष्टयी रूप में परिवर्तित करने की प्रक्रिया विकसित की गई। ऐसा प्रतीत होता है कि 'आत्मा' शब्द भौतिक जगत के अध्यात्मीकरण के युग से प्रचलित हुआ एवं सामान्य जीव भी तब आत्मा बन गया। भगवती ने इसके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावात्मक रूप दिये। वहाँ इसके २३ नाम भी हैं जो इसके भौतिक रूपों को व्यक्त करते हैं। अध्यात्मता के कारण 'धम्मो हि हितयं पयाणं' के बदले 'आदहिदं कादव्वं' में परिणत हो गया। अस्तु, जीव को आत्मा में परिणत करने का एक विशिष्ट विज्ञान है जिसे प्रायः सभी आगमों में सामान्य और विशेष रूप से व्यक्त किया गया है। - जैनों के छह द्रव्य, सात तत्त्व और नव पदार्थों में जीव सर्वप्रथम है। स्वाध्याय शिक्षा - 27. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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