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________________ एकार्थक शब्द हैं। जैन धर्म सभी क्षेत्रों के प्रदूषणों का मूल कारण आत्मिक प्रदूषण को मानता है, शेष सभी प्रदूषण इसी प्रदूषण के कटु फल, फूल, पत्ते व कांटे हैं। अतः जैन धर्म मूल प्रदूषण को दूर करने पर जोर देता है और इस प्रदूषण के मिटने पर ही अन्य प्रदूषण मिटाना संभव मानता है, जबकि अन्य संस्थाएँ, सरकारें, राजनेता प्राकृतिक प्रदूषण को मिटाने पर जोर देते हैं। परन्तु उनके इस प्रयत्न से प्रदूषण मिट नहीं पा रहा है। एक रूप से मिटने लगता है तो दूसरे रूप में फूट पड़ता है, केवल रूपान्तर मात्र होता है, जबकि जैन वाङ्मय में प्रतिपादित सूत्रों से सभी प्रकार के प्रदूषण समूल रूप से नष्ट हो सकते हैं। इसी विषय का अति संक्षिप्त विवेचन किया जा रहा है। ऊपर कह आए हैं कि समस्त प्रदूषणों का मूल कारण है- आत्मिक प्रदूषण अर्थात् आत्मिक विकार। आत्मिक विकार हैं- हिंसा, झूठ, चोरी, व्यभिचार आदि। इन्हें पाप कहा जाता है। इन सब पापों की जड़ है विषय-कषाय से मिलने वाले सुखों के भोग की आसक्ति। भोगों की पूर्ति के लिये भोग-सामग्री व सुविधा चाहिये। भोगजन्य, सुख सामग्री व सुविधा-प्राप्ति के लिये धन-सम्पत्ति चाहिये। धनप्राप्त करने के लोभ से ही मानव हिंसा, झूठ, चोरी, संग्रह, परिग्रह, शोषण आदि दूषित कार्य करता है, स्वास्थ्य के लिये हानिकारक वस्तुओं का उत्पादन करता है, असली वस्तुओं में हानिप्रद नकली वस्तुएँ मिलाता है, कई प्रकार के प्रदूषणों को जन्म देता है। वर्तमान में विश्व में जितने भी प्रदूषण दिखाई देते हैं उन सबके मूल में भोग लिप्सा व लोभ वृत्ति ही मुख्य है। जब तक जीवन में भोगवृत्ति की प्रधानता रहेगी तब तक भोग सामग्री प्राप्त करने के लिये लोभवृत्ति भी रहेगी। कहा भी है कि लोभ पाप का बाप है अर्थात् जहां लोभ होता है वहां पाप की उत्पत्ति होगी ही। पाप प्रदूषण पैदा करेगा ही। अतः प्रदूषण के अभिशाप से बचना है तो पापों से बचना ही होगा, पापों को त्यागना ही होगा। पापों का त्याग ही जैन धर्म की समस्त साधनाओं का आधार व सार है। पापों से मुक्ति को ही जैन धर्म में मुक्ति कहा है। अतः जैन धर्म की समस्त साधनाएँ, प्रदूषणों (दोषों) को दूर करने की साधना है। जैन धर्म में अनगार एवं आगार ये दो प्रकार के धर्म कहे हैं। अनगार धर्म के धारण करने वाले साधु होते हैं जो पापों के पूर्ण त्याग की साधना करते हैं। आगार धर्म के धारण करने वाले गृहस्थ होते हैं। उनके लिये बारह व्रत धारण करने एवं कुव्यसनों के त्याग का विधान किया गया है। यही आगार धर्म प्रदूषणों से बचने का उपाय है। इसी परिप्रेक्ष्य में यहां बारह व्रतों का स्वाध्याय शिक्षा - 45 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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