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________________ विवेचन किया जा रहा है। 1. स्थूल प्राणातिपात का त्याग पहला व्रत है - स्थूल प्राणातिपात का त्याग करना । प्राणातिपात उसे कहा जाता है जिससे किसी भी प्राणी के प्राणों का घात हो । प्राण दश कहे गये हैं- १. श्रोत्रेन्द्रिय बलप्राण २. चक्षुरिन्द्रिय बलप्राण ३. घ्राणेन्द्रिय बलप्राण ४. रसनेन्द्रिय बलप्राण ५. स्पर्शनेन्द्रिय बलप्राण ६. मन बलप्राण ७. वचन बलप्राण ८. काय बलप्राण ६. श्वासोच्छ्वास बलप्राण और १०. आयुष्य बलप्राण। इन दस प्राणों में से किसी भी प्राण को आघात लगे, हानि पहुंचे वह प्राणातिपात है । वह प्राणातिपात प्राणी का ही अर्थात् चेतना का ही होता है, निष्प्राण अचेतन का नहीं। क्योंकि अचेतन (जड़) जगत् पर प्राकृतिक प्रदूषण या अन्य किसी भी प्रकार के प्रदूषण का कोई भला-बुरा प्रभाव नहीं पड़ता है, न ही उसे सुख - दुःख होता है। अतः प्रदूषण का संबंध प्राणी से ही है। इस प्रकार प्रत्येक प्रदूषण से प्राणी के ही प्राणों का अतिपात होता है। इसी प्राणातिपात को वर्तमान में प्रदूषण कहा जाता है। अतः प्रत्येक प्रकार का प्रदूषण प्राणातिपात है, प्राणातिपात से बचना प्रदूषण से बचना है, प्रदूषण से बचना प्राणातिपात से बचना है। जैन धर्म में समस्त पापों का, दोषों का, प्रदूषणों का मूल प्राणातिपात को ही माना है। यहां यह प्रश्न पैदा होता है कि प्राणी प्राणातिपात या प्रदूषण क्यों करते हैं? उत्तर में कहना होगा कि प्राणी को शरीर मिला है इससे उसे चलना, फिरना, बोलना, खाना, पीना, मल- विसर्जन आदि कार्य व क्रियाएँ करनी होती हैं, परन्तु इन सब क्रियाओं में प्रकृति का सहज रूप से उपयोग करे तो न तो प्रकृति को हानि पहुंचती है और न प्राणशक्ति में कमी होती है। इससे प्राणी के जीवन तथा प्रकृति का संतुलन बना रहता है। यही कारण है कि लाखों-करोड़ों वर्षों से इस पृथ्वी पर पशु-पक्षी, मनुष्य आदि प्राणी रहते आए हैं, परन्तु प्रकृति का संतुलन बराबर बना रहा । पर जब प्राणी के जीवन का लक्ष्य सहजं प्राकृतिक / स्वाभाविक जीवन से हटकर भोग भोगना हो जाता है तो वह भोग के सुख के वशीभूत हो अपने हित-अहित को, कर्त्तव्य - अकर्त्तव्य को भूल जाता है। वह भोग के वशीभूत हो वह कार्य भी करने लगता है जिसमें उसका स्वयं का ही अहित हो । उदाहरणार्थ - किसी भी मनुष्य से कहा जाय कि तुम्हारी आंखों का मूल्य पांच लाख रुपये देते हैं, तुम अपनी दोनों आंखों को हमें बेच दो तो कोई भी आंखे बेचने को तैयार नहीं होगा, क्योंकि वह आंखों को अमूल्य मानता है । परन्तु वही मनुष्य चक्षु इन्द्रिय के सुखभोग के वशीभूत हो स्वाध्याय शिक्षा 46 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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