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________________ जैनागमों में पर्यावरण-संरक्षण श्री कन्हैयालाल लोढा जैनागमों में पर्यावरण के संरक्षण के सूत्र यत्र-तत्र सर्वत्र बिखरे पड़े हैं। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह आदि श्रावक के 12 व्रतों की भी पर्यावरण संरक्षण में भूमिका है। जैन धर्म-दर्शन के प्रसिद्ध विद्वान आगम मर्मज्ञ श्री कन्हैयालाल जी लोढ़ा ने प्रस्तुत आलेख में पर्यावरण की व्यापक परिप्रेक्ष्य में चर्चा करते हुए भोग लिप्सा को पर्यावरण प्रदूषण का प्रमुख कारण माना है तथा श्रावक के 12 व्रतों के आलोक में पर्यावरण-संरक्षण का प्रतिपादन किया है। - सम्पादक जैन धर्म में 'पर्यावरण' शब्द का प्रयोग प्राकृतिक पर्यावरण तक ही सीमित न होकर प्राणिजगत तथा मानव - जीवन से संबंधित आत्मिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक आदि सभी क्षेत्रों से सम्बद्ध है। इन समस्त क्षेत्रों में पर्यावरण प्रदूषण का मूल कारण आत्मिक विकार है । आत्मिक विकार का क्रियात्मक' रूप विषय भोग है। भोगवादी संस्कृति ने ही समस्त पर्यावरण प्रदूषणों को उत्पन्न किया है। इन प्रदूषणों से मुक्ति पाने का उपाय जैन धर्म में श्रावक व्रतों का पालन बताया है। यहाँ इसी पर विस्तार से विवेचन किया जा रहा है। पर्यावरण शब्द ‘परि’ उपसर्गपूर्वक 'आवरण' शब्द से बना है। जिसका अर्थ है जो चारों ओर से आवृत्त किए हो, चारों ओर छाया हुआ हो, चारों ओर से घेरे हुए हो। पर्यावरण शब्द का अन्य समानार्थक शब्द है- वातावरण । वातावरण का शाब्दिक अर्थ वायुमंडल होता है, परन्तु वर्तमान में 'वातावरण' शब्द व्यापक अर्थ में प्रयुक्त होता है, जिसे कहा जाता है कि व्यक्ति जैसे वातावरण में रहता है उसके वैसे ही भले-बुरे संस्कार पड़ते हैं। इस रूप में पर्यावरण शब्द भारत के प्राचीन धर्मों में वातावरण अर्थात् मानव-जीवन से संबंधित सभी क्षेत्रों से जुड़ा हुआ है। पर्यावरण दो प्रकार का होता है- परिशुद्ध, अशुद्ध । जो पर्यावरण जीवन के लिए हितकर होता है वह परिशुद्ध पर्यावरण है और जो पर्यावरण जीवन के लिए अहितकर होता है वह अशुद्ध पर्यावरण है। इसी अशुद्ध पर्यावरण को प्रदूषण कहते हैं। पाश्चात्त्य देशों में प्रदूषण शब्द प्राकृतिक प्रदूषण का सूचक है। परन्तु भारतीय धर्मों में विशेषतः जैन धर्म में पर्यावरण प्रदूषण केवल प्रकृति तक ही सीमित नहीं है, प्रत्युत आत्मिक, मानसिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, पारिवारिक, आर्थिक आदि जीवन से संबंधित समस्त क्षेत्र इसकी परिधि में आते हैं। जीवन से संबंधित ये सभी क्षेत्र परस्पर जुड़े हुए हैं। इनमें से किसी भी एक क्षेत्र में उत्पन्न हुए प्रदूषण का प्रभाव अन्य सभी क्षेत्रों पर पड़ता है। जैन धर्म में प्रदूषण, दोष, पाप, विकार, विभाव Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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