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इन्द्रिय निग्रह नहीं, अपितु ऐन्द्रिक अनुभूतियों में भी मन की वीतरागता या समत्व की अवस्था है।
अतः यह स्पष्ट है कि आचारांग सूत्र अपनी विवेचनाओं में मनोवैज्ञानिक आधारों पर खड़ा हुआ है । उत्तम आचार के जो नियम - उपनियम बनाये गये हैं, वे भी उसकी मनोवैज्ञानिक दृष्टि के परिचायक हैं, किन्तु यहां उन सबकी गहराइयों में जाना संभव नहीं है। यद्यपि इस सम्पूर्ण विवेचना का यह अर्थ भी नहीं है कि आचारांग में जो कुछ कहा गया, वह सभी मनोवैज्ञानिक सत्यों पर आधारित है। अहिंसा, समता और अनासक्ति के जो आदर्श उसमें प्रस्तुत किये गए हैं, वे चाहे मनोवैज्ञानिक आधारों पर अधिष्ठित हों, किन्तु उनकी जीवन में पूर्ण उपलब्धि की संभावनाओं पर मनोवैज्ञानिक दृष्टि से ही प्रश्न चिह्न भी लगाया जा सकता है। ये आदर्श के रूप में चाहे कितने ही सुहावने हों, किन्तु मानव जीवन में इनकी व्यावहारिक संभावना कितनी है, यह विवाद का विषय बन सकता है। फिर भी मानवीय दुर्बलता के आधार पर उनसे विमुख होना उचित नहीं होगा। क्योंकि इनके द्वारा ही न केवल मनुष्य का आध्यात्मिक विकास होगा, अपितु लोक मंगल की भावना भी साकार बन सकेगी।
आचारांग में प्रतिपादित तत्त्वज्ञान
जैसा कि हम संकेत कर चुके हैं कि आचारांग मूलतः दर्शन का ग्रन्थ न होकर आचार शास्त्र का ग्रन्थ है, फिर भी ऐसा नहीं कहा जा सकता है कि उसमें दर्शन के तत्त्वों का पूर्णतः अभाव है । आचारांग का प्रारम्भ ही एक पारिणामिक नित्य आत्मा की अवधारणा से होता है । आचारांग आत्मा और पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार करके चलता है। वह कर्म की अवधारणा को भी स्वीकार करता है तथा यह मानता है कि कर्म ही बन्धन के कारण हैं। यदि हम सूक्ष्मता से देखें तो उसमें कर्म को पौद्गलिक मानकर कर्म शरीर का भी उल्लेख किया गया है और साधक को कहा गया है कि वह कर्म शरीर का ही विधूनन करे । इसी प्रकार आचारांग में आस्रव, संवर और प्रकारान्तर से निर्जरा की व्यवस्थाएँ भी उपलब्ध हो जाती हैं। आचारांग मुक्तात्मा के अनिर्वचनीय स्वरूप की भी औपनिषदिक शैली में व्याख्या करता है ।
अतः हम कह सकते हैं कि संक्षेप में आत्मा, पुनर्जन्म, कर्म, बन्धन, आनव, संवर, निर्जरा और मुक्ति इन सब अवधारणाओं को चाहे संक्षेप में ही क्यों न सही, स्वीकार करके चलता है । फिर भी उपर्युक्त विवेचन से इतना स्पष्ट हो जाता है कि आचारांग, दर्शन के संबंध में केवल उन्हीं तथ्यों को रखना चाहता है जो उसके
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