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________________ आचार-शास्त्र की पूर्ण मान्यता के लिए अपरिहार्य हैं। जैनधर्म का जो विकसित तत्त्वज्ञान है उसका उसमें अभाव ही देखा जाता है, जीव और पुद्गल को छोड़कर आकाश, धर्म, अधर्म और काल की उसमें कोई स्वतन्त्र व्याख्या नहीं। आचारांग के आचार नियम जहां तक आचारांग में प्रतिपादित आचार नियमों का प्रश्न है मूलतः वे सभी नियम अहिंसा को केन्द्र में रखकर बनाये गये हैं। आचारांग के आचार नियमों का केन्द्र बिन्दु अहिंसा का परिपालन ही है। जीवन में अहिंसा और अनासक्ति को किस चरमसीमा तक अपनाया जा सकता है इसका आदर्श हमें आचारांग में देखने को मिल सकता है। आचारांग के दो श्रुतस्कन्धों में जहां प्रथम श्रुतस्कन्ध आचार के सामान्य सिद्धान्तों को प्रस्तुत करता है वहां द्वितीय श्रुतस्कन्ध उसके व्यवहार पक्ष को स्पष्ट करने का प्रयास करता है। विद्वानों ने आचारांग के दूसरे श्रुतस्कन्ध को प्रथम श्रुतस्कन्ध की व्यावहारिक व्याख्या ही माना है। प्रथम श्रुतस्कन्ध में मूलतः अहिंसा, अनासक्ति तथा कषायों और वासनाओं के विजय का सूत्र रूप में संकेत किया गया है। जबकि दूसरे श्रुतस्कन्ध में इनसे ऊपर उठकर कैसा जीवन जिया जा सकता है, इसका चित्रण किया गया है। दूसरा श्रुतस्कन्ध मूलतः मुनि जीवन में भोजन, वस्त्र, पात्र आदि सामान्य आवश्यकताओं की पूर्ति किस प्रकार की जाय इसका विस्तार से विवेचन करता है। इस श्रुतस्कन्ध का अन्तिम भाग जहां एक ओर महावीर का जीवनवृत्त प्रस्तुत करता है वहीं दूसरी ओर वह इन्द्रिय विजय की मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया पर भी प्रकाश डालता है। यद्यपि आचारांग का आचार पक्ष व्यावहारिक दृष्टि से कठोर कहा जा सकता है, किन्तु उसमें साधना के जिस आदर्श स्वरूप का चित्रण है, उसके मूल्य को नकारा नहीं जा सकता। -सागर टेन्ट हाउस, नई सड़क, शाजापुरम.प्र.) 22 - स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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