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मूल
में जो निहित राग-द्वेष हैं उन्हें समाप्त करना है। इस संबंध में उसमें जो मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण प्रस्तुत किया गया है, वह विशेष रूप से द्रष्टव्य है। उसमें कहा गया है कि यह शक्य नहीं कि कानों में पड़ने वाले अच्छे या बुरे शब्द सुने न जाएं, अतः शब्दों का नहीं, शब्दों के प्रति जगने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं कि आंखों के सामने वाला अच्छा या बुरा रूप न देखा जाये, अतः रूप का नहीं, अपितु रूप के प्रति जागृत होने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि नासिका के समक्ष आयी हुई सुगन्ध सूंघने में न आए, अतः गन्ध का नहीं, किन्तु गन्ध के प्रति आने वाले राग- द्वेष की वृत्ति का त्याग करना चाहिए। यह शक्य नहीं है कि जीभ पर आया हुआ अच्छा या बुरा रस चखने में न आये। अतः रस का नहीं, किन्तु रस के प्रति जागने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिये। यह शक्य नहीं है कि शरीर से सम्पर्क होने वाले अच्छे या बुरे स्पर्श की अनुभूति न हो । अतः स्पर्श का नहीं, किन्तु स्पर्श के प्रति जागने वाले राग-द्वेष का त्याग करना चाहिए ( आचारांग २.१५.१०१-१०५ ) । उत्तराध्ययन में भी इसकी पुष्टि की गयी है । उसमें कहा गया है कि इन्द्रियों के मनोज्ञ अथवा अमनोज्ञ विषय आसक्त व्यक्ति के लिए राग-द्वेष के कारण नहीं होते हैं। ये विषय रागी पुरुषों के लिए ही दुःख (बन्धन) के कारण होते हैं, वीतरागियों के बंधन या दुःख का कारण नहीं हो सकते हैं। काम भोग न किसी को बंधन में डालते हैं और न किसी को मुक्त ही करते हैं, किन्तु जो विषयों में राग-द्वेष करता है, वहीं राग-द्वेष से विकृत होता है (उत्तराध्ययन ३२.१००-१०१)
जैन दर्शन के अनुसार साधना का सच्चा मार्ग औपशमिक नहीं वरन् क्षायिक है। औपशमिक मार्ग का अर्थ वासनाओं का दमन है। इच्छाओं के निरोध का मार्ग औपशमिक मार्ग है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक की दृष्टि में यह दमन का मार्ग है, जबकि क्षायिक मार्ग वासनाओं के निरसन का मार्ग है । वह वासनाओं से ऊपर उठाता है। यह दमन नहीं, अपितु चित्त विशुद्धि है । दमन तो मानसिक गन्दगी को ढकने मात्र में है और जैन दर्शन इस प्रकार के दमन को स्वीकार नहीं करता। जैन दार्शनिकों ने गुणस्थान प्रकरण में यह स्पष्ट रूप से बताया है कि वासनाओं को दबाकर आने वाली साधना विकास की अग्रिम कक्षाओं से अनिवार्यता पदच्युत हो जाती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन भी आधुनिक मनोवैज्ञानिक के समान ही दमन को साधना का सच्चा मार्ग नहीं मानता है । इसके अनुसार साधना का सच्चा मार्ग वासनाओं का दमन नहीं, अपितु उनसे ऊपर उठ जाना है। वह
स्वाध्याय शिक्षा
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