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ज्ञाताधर्मकथांगसूत्र के पाँचवे अध्ययन में थावच्चापुत्र के वर्णनप्रसंग में ऋषि कहता है
एस णं देवाणुप्पिया! संसारभउद्विग्गे भीए जम्मजरमरणां ण इच्छइ देवाणुप्पियाणं...." उपमा-सादृश्य को उपमा कहते हैं। दो वस्तुओं में चमत्कारजनक साम्य उपमा है। आगमों में अनेक स्थलों पर इसका सुन्दर विनियोग हुआ है। आचारांग सूत्र में भगवान महावीर की उपमा नाग (श्रेष्ठ हाथी) एवं शूरवीर योद्धा से दी गई है
___णाओ संगामसीसे वा।
सूरो संगामसीसे वा।।" सूत्रकृतांग में कामभोग में लिप्त मनुष्य की उपमा मृग से दी गई है। जैसे मृग शंका करने योग्य वस्तु पर शंका नहीं करता। तथा अशंक्य पर शंका करता है और विनाश को प्राप्त होता है, उसी प्रकार अहितात्मा अनार्य अशंकनीय पर शंका और शंकनीय पर विश्वास करते हुए विनाश को प्राप्त होता है
जविणोमिगा जहा संता......" . आगमों में मूर्त के लिए अमूर्त्त, भाव पदार्थ के लिए अभाव, जीव के लिए निर्जीव, मनुष्य के लिए पशु आदि उपमानों का चयन किया गया है, जिससे काव्यभाषागतचारुता एवं सहज आकर्षण धर्म का संवर्द्धन होता है। एक उपमेय के लिए अनेक उपमानों का प्रयोग उत्कृष्ट चारुता का परिचायक है। अनुपलब्ध वस्तु का उपमान के रूप में नियोजन काव्यत्व-चारुता का संवर्द्धक बन जाता है। थावच्चा पुत्र के रूप लावण्य का वर्णन करते हुए आगमकार कहता है कि उसका दर्शन कौन कहे, नाम-श्रवण भी गूलर के फूल के समान दुर्लभ है
___उंबरपुप्फ पिव दुल्लहे सवणयाए, किमंग पुण पासणाए?"
इसमें उपमा के साथ अपत्ति का भी सुन्दर योग बना है। किमंग......में अर्थापत्ति है। परिकर- आगमकार परिकर अलंकार के प्रयोग में सिद्धहस्त हैं। सभी अलंकारों की अपेक्षा आगमों में परिकर अलंकार का अधिक प्रयोग हुआ है। किसी महापुरुष-भगवान महावीर, गणधर, गणधर-शिष्य, सभा, राजप्रासाद आदि के वर्णन में परिकरालंकार की शोभा बनी है।
एक या अनेक साभिप्राय विशेषणों के प्रयोग को परिकर कहते हैं। काव्यप्रकाशकार मम्मट ने लिखा है
विशेषणैः सत्साकूतैरुक्तिः परिकरस्तु सः।"
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