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पुरिसुत्तमेणं, पुरिससीहेणं, पुरिसवरपुंडरीएणं, पुरिसवरगंधहत्थिएणं, लोगुत्तमेणं, लोगनाहेणं, लोगपइवेणं, लोगफज्जोयगरेणं.....तारएणं सासयं ठाणमुवगएणं।" 3. अलंकार __अलंकार साहित्य का प्राण है। अलंकार विनियोजन से कथन में चारुता, अभिव्यक्ति में प्रभविष्णुता आदि का संवर्द्धन होता है। जिसके द्वारा साहित्यिक कथन की बाह्यशोभा का संवर्द्धन होता है, उसे अलंकार कहते हैं। आचार्य मम्मट ने लिखा
उपकुर्वन्ति तं सन्तं येऽडगद्वारेण जातुचित्।
हारादिवदल कारास्ते ऽनु फासोपमादयः ।। __ अर्थात् जो शब्दार्थ साहित्य की शोभा का संवर्धन करते हैं, वे शरीर शोभा संवर्द्धक हार आभूषणों के समान अनुप्रास, उपमादि अलंकार हैं।
पंडितराज जगन्नाथ ने व्यंग्य की रमणीयता को बढ़ाने वाले को अलंकार कहा है
काव्यात्मनो व्यंग्यस्य रमणीयताप्रयोजका अलंकाराः।"
अलंकार प्रयोग का मुख्य प्रयोजन है- शोभासंवर्द्धन वर्णन-वैशिष्टय का प्रतिपादन।
आगम-साहित्य में प्रभूत मात्रा में अलंकारों का विनियोजन हुआ है। इसमें श्लेष, अनुप्रास, उपमा, उत्प्रेक्षा, रूपक, काव्यलिंग, दीपक, परिकर, स्वभावोक्ति, विभावना, विशेषोक्ति, विरोध, अनन्वय आदि अनेक अलंकारों का प्रयोग हुआ है। कुछ प्रमुख अलंकारों का निर्देशन अधोविन्यस्त है। अनुप्रास- आगमों में अनुप्रास अलंकार का प्रभूत प्रयोग हुआ है। आचारांग में अनेक स्थलों पर अनुप्रास का सौन्दर्य नृत्य करता परिलक्षित होता है।
इमस्स चेव जीवियस्स परिवंदण-माणण-पूयणाए जाइमरण-मोयणाए दुक्खपडिघायहे।
संयमी पुरुष का वर्णन करते हुए ऋषि कहता हैसं वसुमं सबसमन्नागयपण्णाणेणं अप्पाणेणं अकरणिज्ज पावं कम्म।"
यहां पर “पण्णाणेणं अप्पाणेणं" में अनुप्रास अलंकार है। लोकसार नामक अध्ययन में शक्ति के आधार पर तीन प्रकार के मनुष्य बताये हैं। वहाँ अनुप्रास का सुन्दर विलास द्रष्टव्य है___ जे पुन्बुलाई णो पच्छाणिवाई। जे पुवबुट्ठाई पच्छाणिवाई।
जे णो पुब्बुट्ठाई णो पच्छाणिवाई।। स्वाध्याय शिक्षा -
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