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________________ कालिक व १ आवश्यक। स्थानकवासी परम्परा में ३२ आगम ही मान्य हैं। जो इस प्रकार हैं- ११ अंग, १२ उपांग, ४ मूलसूत्र, ४ छेद व १ आवश्यकं सूत्र। इनमें भी अनेक पाठ लुप्त हो गए। उदाहरणार्थ द्वादशांग के प्रथम अंग आचारांग में अठारह हजार पद निर्दिष्ट थे।' किन्तु आज मात्र दो हजार छ: सौ चौवालीस श्लोक ही उपलब्ध हैं। इसी तरह अन्तगड़ सूत्र में भी नन्दीसूत्र के अनुसार जहां २३०४००० पदों के होने का उल्लेख है, वहाँ आज उसमें मात्र ६०० श्लोकों का संकलन ही उपलब्ध है। अन्य अनेक आगमों में भी इसी प्रकार से बड़ी संख्या में पद व श्लोकों का विच्छेद हो चुका है। इन्हीं आग़मों में अनेक पाठ व पद प्रक्षिप्त भी कर दिए गए हैं, तथा अनेक सूत्र ऐसे भी हैं, जिनका यथार्थ अर्थ, भाव व मर्म गीतार्थ ज्ञानियों के द्वारा ही समझा जा सकता है। अतः उपलब्ध आगमों के पठन-पाठन में भी नीर-क्षीर विवेक की दृष्टि आवश्यक है। प्रक्षिप्त पाठों के संबंध में एक उदाहरण श्री चन्द्रप्रज्ञप्ति सूत्र का सतरहवां पाहुड का लिया जा सकता है, जिसमें विभिन्न नक्षत्रों में विभिन्न वस्तुओं का भोजन करने का अधिकार है। इसमें बताया गया है कि ऐसा भोजन करके जावे तो कार्य सिद्ध होवे। जैसे रेवती नक्षत्र में जलचर, फूलन आदि का भोजन करके जावे। स्व. बहुश्रुत पं. रत्न श्री समर्थमल जी म.सा. ने इन पाठों को भगवद् वाणी परम्परा से मेल नहीं खाते हैं ऐसा बताकर कहा है कि वीतराग तो ऐसी अभक्ष्य भक्षण रूप वाणी कभी फरमाते नहीं। ऐसे पाठ स्वार्थी पुरुषों द्वारा बाद में प्रक्षिप्त कर दिए प्रतीत होते हैं? अथवा जिस संदर्भ में यह कथानक है वह विलुप्त हो गया हो यह भी संभव है। वैसे भी “शास्त्रप्रयोजनम् तत्त्वदर्शनम्" के अनुसार शास्त्रों में इस प्रकार के उल्लेख नहीं होने चाहिए। फिर सूर्यप्रज्ञप्ति व चन्द्रप्रज्ञप्ति दोनों शास्त्र अलग-अलग होकर भी इनके पाठों में समानता क्यों है? इससे भी प्रतीत होता है कि इन्हें लिपिबद्ध करते समय(जो भ. महावीर के निर्वाण के करीब ६५० वर्ष बाद किए गए थे) भूल हो गई हो। इस प्रकार से स्मृति दोष, स्खलना दोष या रागादि कारणों से ये जैन आगम वर्तमान में मूल विशुद्ध रूप में उपलब्ध नहीं रह सके हैं। दिगम्बर परम्परा तो मूल अंग रूप जिनवाणी का विच्छेद मानकर वर्तमान में उपलब्ध सभी आगमों को बाद के श्रुतधर आचार्यों की रचनाएँ मानती है। इससे भी जिनवाणी के शत-प्रतिशत विशुद्ध रूप में आज उपलब्ध नहीं होने की पुष्टि होती है। एक आगम की मान्यता नहीं वर्तमान में कोई एक आगम ऐसा नहीं है जिसे सभी जैन प्रामाणिक रूप से मानते हों। यह खेद का विषय है कि जहाँ प्रत्येक धर्म में उसके अनुयायियों के द्वारा स्वाध्याय शिक्षा - 127 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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