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१. निर्युक्तियाँ - आगमों पर जो पद्यबद्ध प्राकृत भाषा में टीकाएँ लिखी गईं, नियुक्तियों के नाम से प्रसिद्ध है।
२. चूर्णियाँ - ये गद्यात्मक संस्कृत मिश्रित प्राकृत भाषा में लिखी मिलती हैं। ३. टीकाएँ - टीकाओं में संस्कृत भाषा का प्रयोग हुआ
है।
४. भाष्य- आगमों पर प्राकृत में विस्तृत व्याख्याएँ लिखी गई, जिन्हें भाष्य कहा है।
५. लोक भाषा में लिखित व्याख्या साहित्य- आगमों पर लोक भाषाओं यथा गुजराती, राजस्थानी आदि में लिखा गया व्याख्या साहित्य |
मूल आगमवाणी के उपदेष्टा अज्ञान व मोह भाव से सर्वथा रहित होने से, उनकी देशना में दोष, अपूर्णता या विपरीतता की, किंचित् मात्र भी संभावना या पूर्वापर विरोध अथवा युक्तिबाध नहीं होता है। उनके द्वारा प्ररूपित 'तत्त्व वाणी' प्रामाणिक व द्रव्य, क्षेत्र, काल से अबाधित होती है।
आगम सभी समस्याओं के सम्यग् समाधान प्रदाता
आधुनिक भौतिक युग में बढ़ते तनाव, नैतिक मूल्यों का पतन, चारित्रिक गिरावट, आत्मा-परमात्मा के प्रति अनास्था आदि सभी के सम्यक् समाधान के लिए जैनागमों का स्वाध्याय कामधेनु के दोहन के समान है। जैसे कामधेनु से सभी प्रयोग सिद्ध होते हैं, वैसे ही जैनागमों के स्वाध्याय से सभी समस्याओं का चाहे वे सामाजिक हों या पारिवारिक, भौतिक हों या आध्यात्मिक, उनके यथार्थ समाधान प्राप्त होते हैं। ये जैनागम वास्तव में ज्ञान रूपी मेघ की वह अमृत धारा है जो सभी समस्याओं की ज्वालाओं को शान्त कर देती है। जैनागमों में ऐसे तथ्य विद्यमान हैं जो राम बाण औषधि के रूप में, समस्याओं के महारोगों को नष्ट कर देते हैं। किन्तु इनके पठन-पाठन में नीर-क्षीर के विवेक की महती आवश्यकता है और हेय, ज्ञेय, उपादेय का विवेक भी अपेक्षित है, अन्यथा शास्त्र भी शस्त्र हो जाते हैं। कालप्रभाव से विशुद्ध व संपूर्ण जैनागमों की अनुपलब्धि
यह खेद का विषय है कि आज सर्वज्ञों की वह आप्तवाणी जो जैनागमों में गूंथित रही हैं, संपूर्ण रूप से ज्यों की त्यों शुद्ध रूप में उपलब्ध नहीं है । द्रव्य, क्षेत्र, काल के बदलाव, सम्प्रदाय व्यामोह, राग, द्वेष तथा अज्ञान के कारण अनेक आगमों के मूलपाठ विच्छेद हो गए, तो अनेक पाठ प्रक्षिप्त हो गए। श्वेताम्बर मूर्तिपूजक परम्परा में ८४ आगमों की प्ररूपणा है, जिनमें ४५ आगम उपलब्ध हैं। जबकि नन्दीसूत्र में ७२ आगमों का इस प्रकार उल्लेख है- १२ अंग, २६ उत्कालिक, ३०
स्वाध्याय शिक्षा
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