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जैन आगमों का प्रमुख प्रतिपाद्य : वीतरागता
श्री सम्पतराज डोसी
वीतरागता की प्राप्ति के उपायों का निरूपण ही आगमों का प्रमुख प्रतिपाद्य है। आगमों में संस्कृति, इतिहास, खगोल आदि का भी निरूपण मिलता है, किन्तु आगम आध्यात्मिक संदेश से ओतप्रोत हैं, इसमें सन्देह नहीं। आगम पाठक को वीतरागता की ओर कदम बढ़ाने की प्रेरणा करते हैं। श्री स्थानकवासी जैन स्वाध्याय संघ के पूर्व संयोजक एवं प्रतिष्ठित विद्वान् श्री डोसी जी ने सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र और सम्यक् तप के प्रतिपादन को आधार बनाकर आगमों में वीतरागता को प्रमुख प्रतिपाद्य के रूप में प्रस्तुत किया है। -सम्पादक
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___ संसारस्थ जीवों में जैसे शरीर के अन्दर आत्मा मुख्य होती है, ठीक इसी प्रकार जैन धर्म या जैन दर्शन रूप शरीर में वीतरागता उसमें रही हुई आत्मा के समान है। जैन शब्द के अर्थ पर विचार करें तो जिन अर्थात् रागद्वेष को जीतने वाले वीतराग जिनेश्वरों द्वारा जो प्ररूपित है उसे जैन धर्म कहते हैं। दूसरे अर्थ के अनुसार जिन अर्थात् वीतराग जिनेश्वरों के उपासक को जैन कहते हैं।
जैनधर्म ईश्वरवादी न होकर आत्मवादी है या दूसरे शब्दों में कहें तो अवतारवादी नहीं होकर उत्तारवादी है। ईश्वरवाद में परमात्मा अवतार धारण करके दुष्टों को मार कर धर्म का उत्थान करते हैं, जबकि उत्तारवाद में आत्मा अपने अज्ञान एवं मोह अथवा रागद्वेष को नष्ट करके स्व एवं पर का कल्याण करते हुए परमात्मा बनता है। जैन दर्शन की मान्यता है कि संसार की प्रत्येक आत्मा परमात्मा स्वरूप है
और अपने अन्दर रहे हुए परमात्म भाव को स्वयं के सत् पुरुषार्थ द्वारा प्रकट करके स्वयं परमात्मा बन सकता है। कहा भी है
सिद्धां जैसो जीव है, जीव सो ही सिद्ध होय।
कर्म मैल का आन्तरा, बूझे विरला कोय।। विश्व के अधिकांश धर्म एवं दर्शन परमात्मा को एक एवं सारे जगत का निर्माता मानते हैं। वे उसे जगत के प्रत्येक प्राणी का निर्माण करने वाला एवं उसको सुख-दुःख देने वाला भी मानते हैं। जैसाकि कहा भी है- "हानि-लाभ, जीवन-मरण, यश-अपयश विधि हाथ है।" परन्तु जैन दर्शन का मानना है कि जगत के सभी जीव अपने सुख दुःख, जन्म-मरण आदि के कर्ता स्वयं ही हैं। जैसाकि उत्तराध्ययन सूत्र अध्ययन २० गाथा ३७ में कहा है
अप्पा कत्ता विकत्ता य, दुहाण य सुहाण य।
अप्पा मित्तममित्तं च, दुप्पढिओ सुप्पट्ठिओ।। अर्थात् आत्मा स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता है और विकर्ता अर्थात् कर्मों
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