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अहिंसा में विश्वास रखते हैं संकल्प लेकर प्रयत्न करने चाहिये। जैनागमों में स्थान-स्थान पर अहिंसा भगवती की आराधना का महत्त्व स्पष्ट किया गया है, जिसके कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं
" धम्मो मंगलमुक्किट्ठ, अहिंसा संजमो तवो ।। " - दशवैकालिक 1.1 अहिंसा, संयम और तप यही वास्तविक धर्म है।
" सव्वे जीवावि इच्छंति, जीविउं न मरिज्जिउं । " - दशवैकालिक 6.11 विश्व के सभी प्राणी जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं चाहता । " सव्वे पाणा पिआउया सुहसाया दुक्खपडिकूला । " - आचारांग सूत्र 1.2.3 सबको सुख प्रिय है, दुःख अप्रिय है। सबको अपना जीवन प्यारा है। "जं इच्छसि अप्पणतो, जं च न इच्छसि अप्पणतो ।
तं इच्छ परस्स वि, एत्तियग्गं जिणसासणयं । । " - बृहत्कल्पभाष्य4.5.8.4
जिस हिंसक व्यापार को तुम अपने लिए पसन्द नहीं करते, उसे दूसरा भी पसन्द नहीं करता। जिस दयामय व्यवहार को तुम पसन्द करते हो, उसे सभी पसन्द करते हैं। यही जिनशासन के कथनों का सार है।
"जावंति लोए पाणा तसा अदुव थावरा ।
ते जाणमजाणे वा न हणे नोवि घायए ।। - दशवैकालिक
इस लोक में जितने भी त्रस और स्थावर प्राणी हैं, उनकी हिंसा न जानबूझ कर करो, न अनजान में करो और न दूसरों से ही किसी की हिंसा कराओ। क्योंकि सबके भीतर एक सी आत्मा है।
'अज्झत्थं सव्वओ सव्वं दिस्स पाणे पियाउए ।
न हणे पाणिणो पाणे भयवेराओ उवरए । । " - उत्तराध्ययन 8.10
हमारी तरह सबको अपने प्राण प्यारे हैं, ऐसा मान कर भय और वैर से मुक्त होकर किसी भी प्राणी की हिंसा न करो।
"सयं तिवायए पाणे, अदुवाऽन्नेहिं घायए ।
तं वाऽणुजाणारं वड्ढइ अप्पणो ।। " -सूत्रकृतांग 1.1.1.3 जो व्यक्ति खुद हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है और दूसरों की हिंसा का अनुमोदन करता है वह अपने लिए वैर ही बढ़ाता है। अतः प्राणियों के प्रति वैसा ही भाव रखो जैसाकि अपनी आत्मा के प्रति रखते हो । सभी जीवों के प्रति अहिंसक होकर रहना चाहिए।
" अहिंसा - गहणे पंच महव्वयाणि गहियाणि भवति ।
संजो पुण ती चेव अहिंसाए उवग्गहे वट्टई ।
संपूण्णाय अहिंसाय संजमो वि तस्स वट्टई । । - दशवैकालिक चूर्णि अ. 1
अहिंसा महाव्रत को ठीक से ग्रहण करने पर पाँचों महाव्रत ग्रहण हो जाते हैं। अहिंसा के होने पर ही संयम होता है। जो अहिंसा में परिपूर्ण है उसी के संयम स्वाध्याय शिक्षा
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