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आचारांग सत्र: एक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण
डॉ. सागरमल जैन आचारांगसूत्र मनुष्य को अप्रमत्त, निर्भय, असंग, संवेदनशील एवं अहिंसक बनने की प्रेरणा करता है। मनुष्य की मनोवृत्तियों एवं आदर्शों का भी इसमें वर्णन मिलता है। आधुनिक मनोविज्ञान भी मन एवं उसकी प्रवृत्तियों का अध्ययन करता है। जैन धर्म-दर्शन के शीर्षस्थ विद्वान डॉ. सागरमल जी जैन ने अपने इस आलेख में आचारांग सूत्र के दार्शनिक एवं मनोवैज्ञानिक पक्ष का आधुनिक मनोविज्ञान के परिप्रेक्ष्य में विश्लेषण किया है। -सम्पादक
आचारांगसूत्र का प्रतिपाद्य विषय श्रमण आचार का सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक पक्ष है। चूंकि मानवीय आचार मन और बुद्धि से निकट रूप से जुड़ा हुआ है, अतः यह स्वाभाविक है कि आचार के संबंध में कोई भी प्रामाणिक चिन्तन मनोवैज्ञानिक सत्यों को नकार कर आगे नहीं बढ़ सकता है। हमें क्या होना चाहियेयह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि हम क्या हैं और क्या हो सकते हैं? हमारी क्षमताएँ एवं संभावनाएँ क्या हैं? आचरण के किसी साध्य और सिद्धान्त का निर्धारण साधक की मनोवैज्ञानिक प्रकृति को समझे बिना संभव नहीं है। हमें यह देखना है कि आचारांग में आचार के सिद्धान्तों एवं नियमों के प्रतिपादन में किस सीमा तक इस दार्शनिक, मनोवैज्ञानिक एवं समाजशास्त्रीय दृष्टि का परिचय दिया गया है। अस्तित्व संबंधी जिज्ञासा-मानवीय बद्धि का प्रथम प्रश्न
____ आचारांग सूत्र के उत्थान में ही हमें उसकी दार्शनिक दृष्टि का परिचय मिल जाता है। सूत्र का प्रारम्भ ही अस्तित्व संबंधी मानवीय जिज्ञासा से होता है। पहला ही प्रश्न है
अत्थि मे आया उववाइए, नत्थि मे आया उववाइए।
के अहं आसी के वा इओ चुओ पेच्चा भविस्सामि।।1.1.1.3
इस जीवन के पूर्व मेरा अस्तित्व था या नहीं अथवा इस जीवन के पश्चात् मेरी सत्ता बनी रहेगी या नहीं? मैं क्या था और मृत्यु के उपरान्त किस रूप में होऊँगा, यही अपने अस्तित्व का प्रश्न मानवीय जिज्ञासा और मानवीय बुद्धि का प्रथम प्रश्न है, जिसे सूत्रकार ने सर्वप्रथम उठाया है। मनुष्य के लिये मूलभूत प्रश्न अपने अस्तित्व या सत्ता का ही है। धार्मिक एवं नैतिक चेतना का विकास भी इसी अस्तित्वबोध या स्वरूप बोध पर आधारित है। मनुष्य की जीवन दृष्टि क्या और कैसी होगी, यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि अपने अस्तित्व, अपनी सत्ता और स्वरूप के प्रति उसका दृष्टिकोण क्या है? पाप और पुण्य अथवा धर्म और
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