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अधर्म की सारी मान्यताएँ अस्तित्व की धारणा पर ही खड़ी हुई हैं। इसीलिये सूत्रकार ने कहा है कि जो इस 'अस्तित्व' या 'स्वसत्ता' को जान लेता है वही आत्मवादी है, लोकवादी है, कर्मवादी है और क्रियावादी है । (सोहं से आयावाई लोगवाई कम्पवाई किरियावाई-1.1.1.4-5) व्यक्ति के लिये मूलभूत और सारभूत तत्त्व उसका अपना अस्तित्व ही है और सत्ता या अस्तित्व के इस मूलभूत प्रश्न को उठाकर ग्रन्थकार ने अपनी मनोवैज्ञानिक दृष्टि का परिचय दिया है। आधुनिक मनोविज्ञान में भी जिजीविषा और जिज्ञासा मानव की मूल प्रवृत्तियाँ मानी गयी हैं।
सत्य की खोज में संदेह (दार्शनिक जिज्ञासा) का स्थान
यह कितना आश्चर्यजनक है कि आचारांग श्रद्धा के स्थान पर संशय को सत्य की खोज का एक आवश्यक चरण मानता है । आचारांग में संशय का जो स्थान स्वीकार किया गया है वह दार्शनिक दृष्टि से काफी उपयोगी है। मानवीय जिज्ञासावृत्ति को महत्त्व देते हुए तो यहां तक कहा गया है कि "संसयपरिआगओ संसारे परिन्नये (1.5.1)” अर्थात् संशय के ज्ञान से ही संसार का ज्ञान होता है। आज समस्त वैज्ञानिक ज्ञान के विकास में संशय (जिज्ञासा) की पद्धति को आवश्यक माना गया है। संशय की पद्धति को आज एक वैज्ञानिक पद्धति के रूप में मान्यता प्राप्त है। ज्ञान के क्षेत्र में प्रगति का यही एकमात्र मार्ग है, जिसे सूत्रकार ने पूरी तरह समझा है। संशय विचार के द्वार को उद्घाटित करता है। विचार या चिन्तन से विवेक जागृत होता है, ज्ञान के नये आयाम प्रकट होने लगते हैं । मनोवैज्ञानिक दृष्टि से जो यात्रा सन्देह से प्रारम्भ होती है, अन्त में श्रद्धा तक पहुंच जाती है। अपना समाधान पाने पर संदेह की परिणति श्रद्धा में हो सकती है। इससे ठीक विपरीत समाधान रहित अन्धश्रद्धा की परिणति संदेह में होगी। जो संदेह से चलेगा, अन्त में सत्य को पाकर श्रद्धा तक पहुंच जायेगा। यह है आचारांग की दार्शनिक दृष्टि का परिचय | आत्मा के स्वरूप का विश्लेषण
आत्मा के स्वरूप या स्वभाव का विवेचन करते हुए सूत्रकार ने स्पष्ट रूप से कहा है- जे आया से विन्नाया, जे विन्नाया से आया। जेण वियाणइ से आया । तं पडुच्च पडिसंखाए - 1.5.5। इस प्रकार वह ज्ञान को आत्मस्वभाव या आत्मस्वरूप बताता है। जहाँ आधुनिक मनोविज्ञान चेतना के ज्ञान, अनुभूति और संकल्प ऐसे तीन लक्षण बताता है, वहाँ आचारांग केवल आत्मा के ज्ञान लक्षण पर बल देता है। स्थूल दृष्टि से देखने पर यही दोनों में अन्तर प्रतीत होता है, किन्तु अनुभूति ( वेदना ) और संकल्प यह दोनों लक्षण शरीराश्रित बद्धात्मा के हैं, अतः ज्ञान ही प्रथम लक्षण
स्वाध्याय शिक्षा
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