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सामा सदुद्दामं दाएती मेहलादाम।।" अर्थात् श्यामा स्त्री मधुर, विलास से ललित, युवकों के हृदय को उन्मत्त करने वाला, धुंघरू के शब्दों से मुखर मेखलासूत्र दिखलाती है।
. वीररस का लक्षण एवं उदाहरण अनेक स्थलों पर मिलता है। भगवान महावीर की तपश्चर्या के वर्णन क्रम से शांतवीर या तपवीर का उत्कृष्ट उदाहरण मिलता है। वहां पर दो उपमानों के द्वारा वीर रस की महनीयता का उद्घाटन किया गया है
णाओ संगाम सीसे वा।"
सूरो संगामसीसे वा।।" अर्थात् जैसे श्रेष्ठ हाथी एवं शूरवीर योद्धा भयंकर संग्राम को पार कर जाता है उसी प्रकार भगवान महावीर भी परीषह समर को पार कर जेता बन गए। भयानक, अद्भुत, रौद्र, शृंगार आदि रसों का भी प्रभूत प्रयोग मिलता है। 2. गुण
आत्मा के शौर्य, पराक्रम, साहस, उत्साह आदि गुणों के समान रस के उत्कर्षाधायक एवं अपरिहार्य धर्म को गुण कहा जाता है
ये रसस्यांगिनो धर्माः शौर्यादय इवात्मन।"
उत्कर्षहेतवस्ते स्युरचलस्थितयो गणाः।।" __ आचार्य मम्मट ने तीन गुणों की स्वीकृति दी है- माधुर्य, ओज और प्रसाद ये नवरसों से उत्पन्न सामाजिक की तीन चित्तावस्था-द्रुति, विस्तार और विकास के द्योतक हैं।" आगमों में तीनों गुणों का प्रभूत प्रयोग मिलता है। मुनि जीवन के अकृत्रिम चित्रण में माधुर्य गुण एवं प्रसादगुण का आधिक्य होता है वहीं विलास, शोभा आदि के वर्णन में ओज व्यंजक शब्दों का विनियोजन हुआ है। माधुर्यगुण-आचारांग सूत्र में छोटे-छोटे सामासिक या असामासिक पदों का विनियोजन एवं माधुर्यव्यंजक वर्गों के संयोजन से मधुरिमा का उपस्थापन हो रहा है। कुछ उदाहरण द्रष्टव्य हैं
एस वीरे पसंसिए जे बद्धे पडिमोयए।
जहा अंतो तहा बाहिं जहा बाहिं तहा अंतो।।"
अर्थात् वही वीर प्रशंसित होता है जो कामवासना से बद्ध व्यक्ति को मुक्त करता है। यह शरीर जैसा भीतर है वैसा बाहर है, जैसा बाहर है, वैसा भीतर है।
यहाँ उपर्युक्त उदाहरण में सर्वथा समासरहित पदों का विन्यास हुआ है तथा र, त, ज, ब, प आदि माधुर्य व्यंजक वर्गों के साथ ह आदि ओजोव्यंजक वर्गों स्वाध्याय शिक्षा -
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