SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 124
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ और सूक्ष्म क्रिया कलाप को समझाया गया है। श्रमण के जीवन में अनेकानेक अनुकूल और प्रतिकूल प्रसंग समुपस्थित होते हैं, ऐसी विषम परिस्थिति में किस प्रकार निर्णय लेना चाहिए, यह बात छेदसूत्रों में बताई गई है। आचार संबंधी जैसा नियम और उपनियमों का वर्णन जैन परम्परा में छेदसूत्रों में उपलब्ध होता है वैसा ही वर्णन बौद्ध परम्परा में विनयपिटक में मिलता है और वैदिक परम्परा के कल्पसूत्र, श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्रों में मिलता है। दिगम्बर परम्परा में भी छेदसूत्र बने थे, पर आज वे उपलब्ध नहीं हैं। छेदसूत्र का सर्वप्रथम नामोल्लेख आवश्यकनियुक्ति में हुआ है। इसके पश्चात् विशेषावश्यकभाष्य और निशीथभाष्य आदि में भी यह शब्द व्यवहृत हुआ है। श्रमण जीवन की साधना का सर्वांगीण विवेचन छेदसूत्रों में ही उपलब्ध होता है। साधक की क्या मर्यादा है, उसका क्या कर्त्तव्य है इत्यादि प्रश्नों पर उनमें चिन्तन किया गया है। जीवन में से असंयम के अंश को काटकर पृथक् करना, साधना में से दोषजन्य मलिनता को निकालकर साफ करना, भूलों से बचने के लिए पूर्ण सावधान रहना, भूल हो जाने पर प्रायश्चित्त ग्रहण कर उसका परिमार्जन करना, यह सब छेदसूत्रों का विषय है। छेदसूत्रों की संख्या के बारे में मतभेद और वर्तमान मान्यता समाचारी शतक में समयसुन्दरगणी ने छेदसूत्रों की संख्या छः बताई है१. महानिशीथ २. दशाश्रुतस्कन्ध ३. व्यवहार ४. बृहत्कल्प ५. निशीथ सूत्र ६. जीतकल्प। __ स्थानकवासी एवं तेरापंथ सम्प्रदाय के अनुसार चार छेदसूत्र मान्य हैं१. दशाश्रुतस्कन्ध २. बृहत्कल्प ३. व्यवहार ४. नन्दीसूत्र जीतकल्प को जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण की कृति होने से आगम की श्रेणी में नहीं लिया गया है। महानिशीथ के मूल संस्करण को दीमकों ने उदरस्थ कर लिया था, किन्तु आचार्य हरिभद्र के द्वारा इसका पुनरुद्धार किया गया। अतः वर्तमान में उपलब्ध महानिशीथ को भी आगम कोटि में नहीं गिना गया है। इस प्रकार वर्तमान में मौलिक छेदसूत्र उपर्युक्त चार ही माने गये हैं। दशाश्रुतस्कन्ध का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ पूज्य श्री घासीलाल जी म.सा. ने दशाश्रुतस्कन्ध की मुनिहर्षिणी टीका में इस प्रकार दिया है - दश अध्ययन के विवेचन करने वाले शास्त्र को दशा कहते हैं। गुरु के समीप जो सुना जाता है, उसको श्रुत कहते हैं जो कि सर्वोत्तम अर्थ का प्रतिपादन करता है। यह भगवान के मुखकमल से स्वाध्याय शिक्षा - M - 111 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy