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________________ इससे प्रकृति की देन का/वस्तुओं का व्यर्थ व्यय नहीं होता है और प्रकृति का संतुलन बना रहता है। भारतवर्ष की संस्कृति में अन्न को देवता माना गया है। अन्न के एक दाने को भी व्यर्थ नष्ट करने को घोर पाप या अपराध माना जाता रहा है। पेड़ के फूल, पत्ते व फल को व्यर्थ तोड़ना अनुचित समझा जाता रहा है। पेड़-पौधों को क्षति पहुंचाना तो दूर रहा, उलटा उन्हें पूजा जाता है- खाद और जल देकर उनका संवर्धन व पोषण किया जाता है। यही कारण है कि आज से केवल एक सौ वर्ष पूर्व भारत में घने जंगल थे। जब से उपभोक्तावादी संस्कृति का पश्चिम के देशों से भारत में आगमन हुआ, प्रचार-प्रसार हुआ, इसके पश्चात् सारे प्रदूषण पैदा हो गये, वनों का विनाश हो गया। अगणित वनस्पतियों तथा पशु-पक्षियों की जातियों का अस्तित्व ही मिट गया। जहाँ पहले सिंह भ्रमण करते थे आज वहाँ खरगोश भी नहीं रहे। वर्तमान में विज्ञान के विकास के साथ भोगसामग्री अत्यधिक बढ़ गई है तथा बढ़ती जा रही है, जिसके फलस्वरूप रोग बढ़ गये हैं और बढ़ते जा रहे हैं। उदाहरणार्थ टेलीविजन को ही लें, टेलीविजन के समीप बैठने से बच्चों में रक्त कैंसर जैसा असाध्य रोग बहुत अधिक बढ़ गया है। आंखों की दृष्टि तो कमजोर होती ही है। टेलीविजन के पर्दे पर जो चलचित्र दिखाये जाते हैं, उनमें प्रदर्शित अभिनेताअभिनेत्री के नृत्य, गान, हावभाव, वेशभूषा व अन्य भोग-सामग्री से दर्शकों के मन में कामोद्दीपन तो होता ही है साथ ही मन में अगणित भोग भोगने की कामनाएँ। वासनाएँ उत्पन्न होती हैं, उन सबकी पूर्ति होना संभव नहीं है। कामनाओं/ वासनाओं की पूर्ति न होने से तनाव, हीनभाव, दबाव, द्वन्द्व, कुंठाओं तथा मानसिक ग्रंथियों का निर्माण होता है। जिससे व्यक्ति मानसिक रोगी होकर जीवन पर्यन्त दुःख भोगता है, साथ ही रक्तचाप, हृदयरोग, कैंसर, अल्सर, मधुमेह जैसे शारीरिक रोग का शिकार भी हो जाता है। जैन धर्म का मानना है कि भोग स्वयं आत्मिक एवं मानसिक रोग हैं और इसके फलस्वरूप शारीरिक रोगों की उत्पत्ति होती है। फिर शारीरिक रोगों की चिकित्सा के लिये एन्टीबायोटिक दवाइयाँ ली जाती हैं, जिससे लाभ तो तत्काल मिलता है, परन्तु जीवन-शक्ति नष्ट हो जाती है। फलतः आयु घटकर अकाल में ही वे काल के गाल में समा जाते हैं, वर्तमान में उत्पन्न समस्त समस्याओं का मूल भोगवादी संस्कृति ही है। 8. अनर्थदण्ड विरमण - अनर्थ शब्द 'अन्' (नञ्-अ) पूर्वक 'अर्थ' शब्द से बना है। अन् के अनेक अर्थ फलित होते हैं। उनमें मुख्य हैं अभाव, विलोम। अर्थ कहते हैं-मतलब को। अतः 54 - → स्वाध्याय शिक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002542
Book TitleSwadhyaya Shiksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmchand Jain
PublisherAkhil Bharatiya Sahitya Kala Manch
Publication Year2003
Total Pages174
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size8 MB
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